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हरिजन और जैन
जबसे बम्बईकी धारा-सभामें 'हरिजनमन्दिर-प्रवेश' बिल पास हुआ है तबसे गाढ़-निद्रामें मग्न जैन समाज का मानस विशेष रूपसे जागृत हो गया है । इस मानसके एक कोनेसे पण्डिताई सेठाई और साधुशाहीने एक साथ मिलकर आवाज़ लगाई है कि हरिजन हिन्दू समाजके अंग हैं, और जैन हिन्दू समाजसे जुदे हैं। इसलिए हिन्दू समाजको लक्ष्य करके बनाया गया 'हरिजनमन्दिरप्रवेश' बिल जैन समाजको लागू नहीं हो सकता।
जागृत जैनमानसके दूसरे कोनेसे दूसरी आवाज उठी है कि भले ही जैनसमाज हिन्दू समाजका एक भाग हो और इससे जैनसमाज हिन्दू गिनी जाय पर जैनधर्म हिन्दू धर्मसे पृथक् है, और 'हरिजन-मन्दिर-प्रवेश' बिल हिन्दूधर्ममें सुधार करनेके लिए है, अतः वह जैनधर्मपर लागू नहीं हो सकता। क्योंकि हरिजन हिन्दू धर्मके अनुयायी हैं, जैनधर्मके नहीं । जैन धर्म तो मूलसे ही जुदा है। इन दो विरोधी आवाजोंके सिवाय जागृत जैन मानससे कुछ
और भी स्वर निकले हैं। कोई कहते हैं कि लम्बे समयसे चली आई जैनपरम्परा और प्रणालीके आधारसे हरिजनोंको जैनमन्दिर-प्रवेशसे रोक रखनेके लिए बिलका निषेध करना चाहिए। कुछ लोग जैन मन्दिरोंको जैन सम्पत्ति और उनपर जैन स्वामित्व मानकर ही बिलका विरोध करते हैं ।
दूसरी तरफ उपरिलिखित जुदे-जुदे विरोधी पक्षोंका सख्त प्रतिवाद करनेवाली एक नवयुगीन प्रतिध्वनि भी जोरोंसे उठी है । मैं इन लेखमें इस सब पक्षोंकी सबलता और निर्बलताको परीक्षा काना चाहता हूँ। पहले पक्षका कहना है कि जैनसमाज हिन्दूसमाजसे जुदा है। यह पक्ष 'हिन्दू' शब्द का अर्थ केवल
ब्राह्मण-धर्मानुयायी या वैदिक परम्परानुयायी समझता है, पर यह अर्थ Jain Education International
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