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वर्तमान साधु और नवीन मानस
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अभूतपूर्व मानसोंको उत्पन्न किया है और वे ही एक दूसरेपर विजय पानेके लिए समाजके अखाड़े में उतर पड़े हैं। यदि हम इन परस्परविरोधी दोनों मानसोंका गठन करनेवाले शिक्षण, उसके विषय और उसकी प्रणालीके बारेमें कुछ जान लें, तो निश्चय हो जायगा कि अभी जो मानसिक भूकम्प आया है वह स्वाभाविक और अनिवार्य है। साधु लोग सीखते हैं । सारी जिन्दगी शिक्षा लेनेवाले साधुओंकी कमी नहीं है। उनके शिक्षक उन्हीं जैसे मनोवृत्तिके साधु होते हैं और ज्यादातर तो ऐसे पण्डित होते हैं जो कि बीसवीं सदीमें जन्म लेकर भी बारहवीं या सोलहवीं सदीसे आगे शायद ही बढ़े हों।
साधुओंकी शिक्षाप्रणाली साधुओंकी शिक्षाका मुख्य विषय जो सबसे पहले उन्हें पढ़ाया जाता है, क्रिया-काण्डविषयक सूत्र हैं। इन सूत्रोंके सीखते और सिखाते समय एक ही दृष्टि सामने होती है कि वे स्वयं भगवान् महावीरके रचे हुए हैं, या पीछेके होनेपर भी ऐसे अचल हैं कि उनमें उत्पाद-व्ययका जैनसिद्धान्त भी गौण हो जाता है। इस क्रिया-काण्डी शिक्षापर सर्वश्रेष्ठताकी छाप इस तरह श्रद्धाके हथोड़े मारमारकर बिठाई जाती है कि सीखनेवाला दूसरे सभी क्रियाकाण्डोंको तुच्छ और भ्रामक मानने लगता है । इतना ही नहीं, वह अपने छोटेसे गच्छ के सिवा दूसरे सहोदर और पड़ोसी गच्छोंके विधि-विधानोंको भी अशास्त्रीय गिनने लगता है।
साधुओंके शिक्षणका दूसरा विषय धर्म और तस्वज्ञान है। धर्मके नामसे 'वे जो कुछ सीखते हैं उसमें उनकी एक ही दृष्टि आदिसे अन्त तक ऐसी दृढतासे पोषी जाती है कि उन्हें सिखाया जानेवाला धर्म पूर्ण है। उसमें कुछ भी कम ज्यादा करनेके लिए अवकाश नहीं और धर्मकी श्रेष्ठताके बारेमें उनके मनपर ऐसे संस्कार डाले जाते हैं कि जब तक वे लोग इतर धर्मों के दोष न देखें और इतर धर्मोकी कमियाँ न बतलावें, तब तक उन्हें अपने धर्मकी श्रेष्ठताका विश्वास करनेका दूसरा कोई मार्ग दिखलाई नहीं पड़ता। जैन साहित्यमें दाखिल हुई कोई भी घटना-भले ही वह काल्पनिक हो, रूपक
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