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सम्प्रदाय और कांग्रेस
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जिस समय बंग-भंगका आन्दोलन चल रहा था, मैंने एक संत-वृत्ति विद्याप्रिय जैन साधुसे पूछा महाराज, आप कांग्रेसकी प्रवृत्ति में भाग क्यों नहीं लेते; यह तो राष्ट्रीय स्वतन्त्रताके वास्ते लड़नेवाली संस्था है और राष्ट्रीय स्वतंत्रता जैनोंकी स्वतंत्रता भी शामिल है।" उन्होंने सच्चे दिलसे, जैसा वे मानते और समझते थे, वैसा ही जवाब दिया, 66 महानुभाव, कांग्रेस देशकी संस्था है, इसमें देश-कथा और राज कथा ही होती है, बल्कि राज्य - विरोध तो इसका ध्येय ही है । तब हम जैसे व्यागियोंके लिए इस संस्था में भाग लेना था दिलचस्पी रखना कैसे धर्म कहा जा सकता है ? मौकेपर उपनिषदों और गीताका निरंतर अध्ययन करनेवाले संन्यासीसे भी मैंने यही सवाल पूछा। उन्होंने भी गम्भीरतासे जवाब दिया, कहाँ तो अद्वैत ब्रह्मकी शांति और कहाँ भेद-भावसे भरी हुई खिचड़ी जैसी संक्षोभकारी कांग्रेस ! हमारे जैसे अद्वैत मार्गमें विचरनेवाले और घरबार छोड़कर संन्यास लेनेवालेके लिए इस भेद और द्वैतके चक्कर में पड़ना कैसे उचित कहा जा सकता है ? "
एक दूसरे
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महाभारत के वीर रस प्रधान आख्यान कहनेवाले एक कथाकार व्यासने भी कुछ ऐसे ही प्रश्नके जवाब में फौरन सुनाया, " देखा तुम्हारी कांग्रेसको ! इसमें तो ज्यादातर अंग्रेजी पढ़े हुए और कुछ न कर सकनेवाले लोग ही जमा होते हैं और अंग्रेजीमें भाषण देकर तितर बितर हो जाते हैं। इसमें महाभारतके सूत्रधार कृष्णका कर्मयोग कहाँ हैं ? " अगर उस वक्त मैंने किसी सच्चे मुसलमान मौलवीसे भी यही प्रश्न किया होता तो उनका जबाब भी कुछ इसी तरहका होता, " कांग्रेस में जाकर क्या करना है ? क्या इसमें इस्लाम के फरमानोंका
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