________________ शस्त्र और शास्त्र उदारता दो तरहकी है-एक तो विरोधी या भिन्न ध्येयवालेके प्रति तटस्थतृत्तिके अभ्यासकी और दूसरी आदर्शको महान् बनानेकी। जब आदर्श बिलकुल संकुचित होता है, व्यक्ति या पंथमें मर्यादित होता है, तब मनुष्यका मन, जो स्वभावतः विशाल तत्वोंका ही बना हुआ है उस संकुचित आदर्शमें घबड़ाहटका अनुभव करता है और विषचक्रसे बाहर निकलनेके लिए लालायित हो जाता है / उस भनके समक्ष यदि विशाल आदर्श रखा जाय तो उसे अभीष्ट क्षेत्र मिल जाता है और इस प्रकार क्लेश और कलहके लिए उसकी शक्ति शेष नहीं रह जाती / अतएव धर्मप्रेमी होनेकी इच्छा रखनेवाले प्रत्येक व्यक्तिका कर्तव्य है कि वह अपने आदर्शको विशाल बनावे और उसके लिए मनको तैयार करे / और ज्ञानवृद्धिका मतलब भी समझ लेना चाहिए / मनुष्यजातिमें ज्ञानकी भूख स्वभावतः होती है। उस भूखको भिन्न भिन्न पंथोंके, धर्मोके और दूसरी अनेक ज्ञानविज्ञानकी शाखाओंके शास्त्रोंके सहानूभूतिपूर्वक अभ्यासके द्वारा ही शान्त करनी चाहिए / सहानुभूति होती है तभी दूसरी बाजूको ठीक तौरसे समझा जा सकता है / [पर्युषण-व्याख्यानमाला, बबई 1932 / अनुवादक, प्रो० दलसुख मास्वणिया] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org