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नहीं हो सकती और जिजीविषाकी तृप्ति तभी हो सकती है, जब प्राणधारी अपने छोटे बड़े दल में रहकर उसकी मदद लें और मदद करें । जिजीविषाके साथ अनिवार्य रूप से संकलित इस सजातीय दलसे मदद लेनेके भावमें ही धर्मका बीज निहित है । अगर समुदाय में रहे बिना और उससे मदद लिए विना जीवनधारी प्राणीकी जीवनेच्छा तृप्त होती, तो धर्मका प्रादुर्भाव संभव ही न था । इस दृष्टि से देखनेपर कोई सन्देह नहीं रहता कि धर्मका बीज हमारी जिजीविषामें है और वह जीवन विकास की प्राथमिकसे प्राथमिक स्थितिमें भी मौजूद है, चाहे वह अज्ञान या अव्यक्त अवस्था ही क्यों न हो ।
हरिण जैसे कोमल स्वभावके ही नहीं बल्कि जंगली भैंसों तथा गैण्डों जसे कठोर स्वभाव के पशुओंमें भी देखा जाता है कि वे सब अपना अपना दल बाँधकर रहते और जीते हैं। इसे हम चाहे आनुवंशिक संस्कार मानें चाहे पूर्व जन्मोपार्जित, पर विकसित मनुष्य जातिमें भी यह सामुदायिक वृत्ति अनिवार्य रूपसे देखी जाती है। जब पुरातन मनुष्य जंगली अवस्थामें था तत्र और जब आजका मनुष्य सभ्य गिना जाता है तब भी, यह सामुदायिक वृत्ति एक-सी अखण्ड देखी जाती है। हाँ, इतना फर्क अवश्य है कि जीवन - विकास की अमुक भूमिका तक सामुदायिक वृत्ति उतनी समान नहीं होती जितनी कि विकसित बुद्धिशील गिने जानेवाले मनुष्य में है । हम अभान या अस्पष्ट भानवाली सामुदायिक वृत्तिको प्रावाहिक या औधिक वृत्ति कह सकते हैं । पर वही वृत्ति धर्म- बीजका आश्रय है, इसमें कोई सन्देह नहीं । इस धर्म - बीजका सामान्य और संक्षिप्त स्वरूप यही है कि वैयक्तिक और सामुदायिक जीवनके लिए जो अनुकूल हो उसे करना और जो प्रतिकूल हो उसे टालना या उससे बचना ।
जब हम विकसित मानव जाति के इतिहास-पटपर आते हैं तब देखते हैं कि केवल माता-पिताके सहारे बढ़ने और पलनेवाला तथा कुटुम्बके वातावरणसे पुष्ट होनेवाला बच्चा जैसे जैसे बड़ा होता जाता है और उसकी समझ जैसे जैसे बढ़ती जाती है वैसे वैसे उसका ममत्व और आत्मीय भाव माता-पिता तथा कुटुम्बके वर्तुलसे और भी आगे विस्तृत होता जाता है । वह शुरू में अपने छोटे गाँव को ही देश मान लेता है । फिर क्रमशः अपने राष्ट्रको देश मानता
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