________________ 136 ऋषिभाषित में उत्कटवादियों (चार्वाकों) से सम्बन्धित अध्ययन के अन्त में कहा गया है एवं से सिद्धे बुद्धे विरते विपावे दन्ते दविए अलं ताइ णो पुणरवि इच्चत्थं हव्वमागच्छति तिबेमि। इस प्रकार वह सिद्ध, बुद्ध, विरत, निष्पाप, जितेन्द्रिय, करुणा से द्रवित एवं पूर्ण त्यागी बनता है और पुन: इस संसार में नहीं आता है, आदि कहा गया है। अत: देहात्मवादी होकर लोकायत दार्शनिक भौतिकवादी या भोगवादी नहीं थे वे भारतीय ऋषि परम्परा के ही अंग थे, जो निवृत्तिमार्गी, नैतिक दर्शन के समर्थक थे। वे अनैतिक जीवन के समर्थक नहीं थे - उन्हें विरत या दान्त कहना उनको त्यागमार्ग एवं नैतिक जीवन का सम्पोषक ही सिद्ध करना है। वस्तुत: लोकायत दर्शन को जो भोगवादी जीवन का समर्थक कहा जाता है, वह उनकी तत्त्वमीमांसा के आधार पर विरोधियों द्वारा प्रस्तुत निष्कर्ष है। यदि सांख्य का आत्म-अकर्तावाद, वेदान्त का ब्रह्मवाद, बौद्धदर्शन का शुन्यवाद और विज्ञानवाद तप, त्याग और सम्पोषक माने जा सकते हैं तो देहात्मवादी लोकायत दर्शन को उसी मार्ग का सम्पोषक मानने में कौन सी बाधा है। चार्वाक या लोकायत दर्शन देहात्मवादी या तज्जीवतच्छरीरवादी होकर नैतिक मूल्यों और सदाचार का सम्पोषक रहा है। वह इस सीमित जीवन को सन्मार्ग में बिताने का संदेश देता है, उसका विरोध कर्मकाण्ड से रहा है न कि सात्विक नैतिक जीवन से। यह बात ऋषिभाषित के उपरोक्त विवरण से सिद्ध हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org