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ऋषिभाषित में प्रस्तुत चार्वाक दर्शन
प्राचीन जैन आगमों में चार्वाकदर्शन की तार्किक प्रतिस्थापना और तार्किक समीक्षा हमें सर्वप्रथम ऋषिभाषित (ई.पू. चौथी शती) में ही मिलती है उसके पश्चात् सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध (ई.पू. प्रथम शती) में तथा राजप्रश्नीय (ई.पू. प्रथम शती) में मिलती है। ऋषिभाषित का बीसवाँ "उक्कल' नामक सम्पूर्ण अध्ययन ही चार्वाक दर्शन की मान्यताओं के तार्किक प्रस्तुतीकरण से युक्त है। चार्वाकदर्शन के तज्जीवतच्छरीरवाद का प्रस्तुतीकरण इस ग्रन्थ में निम्न प्रकार से हुआ है -
“पादतल से ऊपर और मस्तक के केशाग्र से नीचे तक के सम्पूर्ण शरीर की त्वचापर्यन्त जीव आत्मपर्याय को प्राप्त हो जीवन जीता है और इतना ही मात्र जीवन है। जिस प्रकार बीज के भुन जाने पर उससे पुन: अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार शरीर के दग्ध हो जाने पर उससे पुनः शरीर (जीवन) की उत्पत्ति नहीं होती। इसीलिए जीवन इतना ही है (अर्थात् शरीर की उत्पत्ति से विनाश तक की कालावधि पर्यन्त ही जीवन है) न तो परलोक है, न सुकृत और दुष्कृत कर्मों का फल विपाक है। जीव का पुनर्जन्म भी नहीं होता। पुण्य और पाप जीव का संस्पर्श नहीं करते और इस तरह कल्याण और पाप निष्फल है।" ऋषिभाषित में चार्वाकों की इस मान्यता की समीक्षा करते हुए पुन: कहा गया है कि “पादतल से ऊपर तथा मस्तक के केशान से नीचे तक के शरीर की सम्पूर्ण त्वचापर्यन्त आत्मपर्याय को प्राप्त ही जीव है, यह मरणशील है, किन्तु जीवन इतना ही नहीं है। जिस प्रकार बीज के जल जाने पर उससे पुन: उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार शरीर के दग्ध हो जाने पर उससे पुन: उत्पत्ति नहीं होती। इसलिए पुण्य-पाप का अग्रहण होने से सुख-दुःख की सम्भावना का अभाव हो जाता है और पाप कर्म के अभाव में शरीर के दहन से या शरीर के दग्ध होने पर पुन: शरीर की उत्पत्ति नहीं होती अर्थात् पुनर्जन्म नहीं होता।” इस प्रकार व्यक्ति मुक्ति प्राप्त कर लेता है। यहाँ हम देखते हैं, कि ग्रन्थकार चार्वाकों के अपने ही तर्क का उपयोग करके यह सिद्ध कर देता है कि पुण्य-पाप से ऊपर उठकर व्यक्ति पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति पा लेता है।
इस ग्रन्थ में चार्वाक दर्शन के सन्दर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसमें कर्म सिद्धान्त का उत्थापन करने वालो चार्वाकों के पाँच प्रकारों का उल्लेख Jain Education International For Private & Personal Use Only
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