________________ 24 जो पत्रिकाएँ छप रही हैं उनकी स्थिति यह है कि एक-एक पत्रिका की सम्पूर्ण लागत लाखों में होती है, क्या यह धन सत साहित्य या प्राचीन ग्रंथों, जो भण्डारों में दीमकों के भक्ष्य बन रहे हैं, के प्रकाशन में उपयोगी नहीं बन सकता है ? मैं यह सब जो कह रहा हूँ उसका कारण साधक वर्ग के प्रति मेरे समादार भाव में कमी है ऐसा नहीं है, किन्तु उस यथार्थता को देखकर मन में जो पीड़ा और व्यथा है, यह उसी का प्रतिफल है। बाल्यकाल से लेकर जीवन की इस ढलती उम्र तक मैंने जो कुछ अनुभव किया है, मैं उसी की बात कह रहा हूँ। मेरे कहने का यह भी तात्पर्य नहीं है कि समाज पूरी तरह मूल्यविहीन हो गया है। आज भी कुछ मुनि एवं श्रावक हैं जिनकी चारित्रिक निष्ठा और साधना को देखकर उनके प्रति श्रद्धा और आदर का भाव प्रकट होता है, किन्तु सामान्य स्थिति यही है। आज हमारे जीवन में और विशेष रूप से हमारे पूज्य मुनि वर्ग के जीवन में जो दोहरापन यथार्थ या विवशता बनता जा रहा है, उस सबके लिए हम ही अधिक उत्तरदायी हैं / आज हमें अपने आदर्श अतीत को देखना होगा, अपने पूर्वजों की चारित्र निष्ठा और मूल्य निष्ठा को समझना होगा। मात्र समझना ही नहीं, उसे जीना होगा, तभी हम अपनी अस्मिता की और अपने प्राचीन गौरव की रक्षा कर सकेंगे। आज पुनियां का आदर्श, आनन्द की चारित्र निष्ठा, भामाशाह का त्याग, तेजपाल और वस्तुपाल की धर्मप्रभावना सभी मात्र इतिहास की वस्तु बन गये हैं / तारण स्वामी, लोकाशाह, बनारसीदास आदि के धर्म क्रान्ति के शंखनाद की ध्वनि हमें सुनाई नहीं देती है यह हमारी वर्तमान दुर्दशा का कारण है, हम कब सजग और सावधान होंगे? यह चिन्तनीय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org