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________________ स्त्रीमुक्ति, अन्यतैर्थिकमुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति का प्रश्न १२५ यदि यह तर्क प्रस्तुत किया जाय कि स्त्रियों में पुरुषार्थ की कमी होती है इसलिये वे मुक्ति की अधिकारी नहीं हैं, किन्तु हम देखते हैं कि आगमों में ब्राह्मी, सुन्दरी, राजीमति, चन्दना आदि अनेक स्त्रियों के उल्लेख हैं जो पुरुषार्थ और साधना में पुरुषों से कम नहीं थीं। अत: यह तर्क भी युक्तिसंगत नहीं है। पुन: एक तर्क यह भी दिया जा सकता है कि जो व्यक्ति बहुत पापी और मिथ्यादृष्टिकोण से युक्त होता है वही स्त्री के रूप में जन्म लेता है। सम्यग्दृष्टि प्राणी स्त्री के रूप में जन्म ही नहीं लेता। तात्पर्य यह है कि स्त्री-शरीर का ग्रहण पाप के परिणामस्वरूप होता है इसलिये स्त्री-शरीर मुक्ति के योग्य नहीं है। साथ ही दिगम्बर परम्परा यह भी मानती है कि एक सम्यग्दृष्टि व्यक्ति स्त्री, पशुस्त्री, प्रथम नरक के बाद के नरक, भूत-पिशाच आदि और देवी के रूप में जन्म नहीं लेता। पापी आत्मा ही इन शरीरों को धारण करता है। अत: स्त्री-शरीर मुक्ति के योग्य नहीं है। इस सम्बन्ध में याफ्नीयों का कथन है कि दिगम्बर परम्परा की यह मान्यता प्रमाणरहित है। दूसरे जब सम्यग्दर्शन का उदय होता है, तब सभी कर्म मात्र एक कोटाकोटि सागरोपम की स्थिति के रह जाते हैं, ६९ कोटाकोटि सागरोपम स्थिति के कर्म तो मिथ्यादृष्टि व्यक्ति भी समाप्त कर सकता है। अत: सम्यग्दर्शन का उदय होने पर स्त्रियाँ अवशिष्ट मात्र एक कोटाकोटि सागरोपम के कर्मों को क्यों क्षय नहीं कर सकती ? फिर भी स्त्री में कर्म क्षय करने की शक्ति का अभाव मानना युक्तिसंगत नहीं है। पुन: आगमों में स्त्रीमुक्ति के उल्लेख भी हैं। मथुरागम में कहा गया है कि एक समय में अधिकतम १०८ पुरुष, २० स्त्रियाँ और १० नपुंसक सिद्ध हो सकते हैं।२१ ज्ञातव्य है कि यह उल्लेख उत्तराध्ययनसूत्र का है, जिसकी माथुरीवाचना यापनीयों को भी मान्य थी। इसके अतिरिक्त आगम में स्त्री के १४ गुणस्थान कहे गये हैं। सम्भवत: शाकटायन का यह निर्देश षटपण्डागम के प्रसंग में है। ज्ञातव्य है कि षट्खण्डागम दिगम्बरों को भी मान्य है। इस वचन के प्रति दिगम्बर परम्परा का यह कहना है कि यहाँ स्त्री से तात्पर्य भाव-स्त्री (स्त्रीवेदी जीव ) अर्थात् उस पुरुष से है जिसका स्वभाव स्त्रैण हो। इस सम्बन्ध में शाकटायन का प्रत्युत्तर यह है कि किसी शब्द का दूसरा गौण अर्थ होते हुए भी, जब तक उस सन्दर्भ में उसका प्रथम मुख्य अर्थ उपयुक्त हो तब तक दूसरा गौण अर्थ नहीं लिया जा सकता। प्रत्येक शब्द का अपना एक निश्चित रूढ़ अर्थ होता है और बिना पर्याप्त कारण के उस निश्चित रूढ़ अर्थ का त्याग नहीं किया जा सकता। पुन: जब तक व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ या रूढ़ अर्थ ग्राह्य है, तब तक दूसरा अर्थ लेने की आवश्यकता नहीं है। स्त्री शब्द स्त्रीशरीरधारी अर्थात् स्तन, गर्भाशय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.229145
Book TitleStreemukti Anyatairthikmukti evam Savastramukti ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf
Publication Year1997
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationArticle & Nine Tattvas
File Size541 KB
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