________________ 184 महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के जैनधर्म सम्बन्धी मन्तव्यों की समालोचना से सत्य को समझते हुए अन्यथा रूप में आचरण करना पाप है। मन में अहिंसा और करुणा तथा व्यवहार में क्रूरता या हिंसा यह छलना ही है। राहुलजी की यह टिप्पणी भी सत्य है कि महावीर ने स्वयं अपने जीवन में और जैनसाधना में शारीरिक तपों को आवश्यक माना है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि महावीर मात्र देह-दण्डन या आत्म-पीड़न के समर्थक थे। उन्होंने उत्तराध्ययन में तप के बाह्य और आभ्यान्तर ऐसे दो पक्ष माने थे और दोनों पर ही समान बल दिया था। स्वाध्याय, सेवा और ध्यान भी उनकी दृष्टि में तप के ही महत्त्वपूर्ण अंग है। अतः राहुलजी का महावीर को मात्र शारीरिक पक्ष पर बल देने वाला और आभ्यान्तर पक्ष की अवहेलना कर लेने वाला, मानना-समुचित नहीं है। अनेकान्तवादी जैनदर्शन के सम्बन्ध में उनकी यह टिप्पणी है कि अनेकान्त और स्याद का विकास संजय वेलट्टीपुत्त के विक्षेपवाद से हुआ, भी पूर्णतः सत्य नहीं है ( दर्शन-दिग्दर्शन, पू. 595) / वस्तुतः संजय के विक्षेपवाद का बौद्धों के विभज्यवाद एवं शून्यवाद का और जैनों के अनेकान्तवाद और स्याद्राद का विकास औपनिषदिक चतुष्कोटियों और विभज्यवादी दृष्टिकोण से हुआ है। दर्शन-दिग्दर्शन ( पू.५८७ ) में एक स्थल पर उन्होंने जैनधर्म के जिन पाँच तत्त्वों का उल्लेख किया वह भी भ्रान्त है -- उन्होंने जिन पाँच तत्त्वों का उल्लेख किया है वे है -- जीव, अजीव, धर्म, आकाश और पुद्गल। इसमें अजीव को निरर्थक रूप में जोड़ा है और "अधर्म" को छोड़ दिया है, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल सभी अजीव ही माने गये हैं। जैनधर्म के सम्बन्ध में राहुलजी की यह टिप्पणी कि उनकी पृथ्वी, जल आदि के जीवों की अहिंसा के विचार ने जैनधर्म की अनुयायियों को कृषि के विमुख कर वणिक बना दिया। वे उत्पादक श्रम से हटकर परोपजीवी हो गये। उनका यह मन्तव्य भी किसी सीमा तक उचित तो है -- किन्तु पूर्णतः सत्य नहीं है। आज भी बुन्देलखण्ड, मेवाड़, महाराष्ट्र और कर्नाटक में जैनजातियाँ कृषि पर आधारित हैं और उन्हें कृषिकर्म करते हुए देखा जा सकता है। प्राचीन आगम भगवतीसूत्र से इस प्रश्न पर कि कृषिकर्म में कृमि आदि की हिंसा की जो घटना घटित हो जाती है, उसके लिये गृहस्थ उत्तरदायी है या नहीं, गंभीर स्प से विचार हुआ है। उसमें यह माना गया है कि कोई भी गृहस्थ की जाने वाली हिंसा का उत्तरदायी होता है, हो जाने वाली हिंसा का नहीं। कृषि करते हुए जो प्राणीहिंसा हो जाती है, उसके लिये गृहस्थ उत्तरदायी नहीं है। इसी प्रकार जैनों का अहिंसा का सिद्धान्त व्यक्ति को कायर या भगोड़ा नहीं बनाता है। वह गृहस्थ के लिये अक्रामक हिंसा का निषेध करता है, सुरक्षात्मक हिंसा (विरोधी-हिंसा) का नहीं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्म के सम्बन्ध में राहुलजी के मन्तव्य आंशिक सत्य होकर भी अपूर्ण या एकांगी है। क्योंकि उन्होंने इस सम्बन्ध में जैन स्रोतों की खोज-बीन का प्रयत्न नहीं किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org