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Vol. III - 1997-2002
तपागच्छ - बृहपौषालिक शाखा
३२७
ज्ञानसागरसूरि
उदयसागरसूरि
लब्धिसागरसूरि [पट्टधर]
शीलसागरसूरि [शिष्य]
चारित्रसागरसूरि [शिष्य]
धनसागरसूरि [शिष्य]
धनरत्नसूरि [शिष्य] लिब्धिसागरसूरि के पट्टधर]
धनरत्नसूरि
सौभाग्यसागर
अमररत्नसूरि तेजरत्नसूरि
देवरत्नसूरि
कल्याणरत्न
सौभाग्यरत्न
भानुमेरुगणि उदयसौभाग्य हैमप्राकृत पर ढुंढिका
के रचनाकार
जयरत्न
नयसुन्दर [पट्टावली के
- रचनाकार] क्षेमकीर्ति के एक शिष्य हेमकलशसूरि हुए, जिनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती । आचार्य देवेन्द्रसूरि द्वारा रचित धर्मरत्नप्रकरणटीका' (रचनाकाल वि. सं. १३०४-२३) के संशोधक के रूप में विद्यानन्द और धर्मकीर्ति के साथ हेमकलश का भी नाम मिलता है, जिन्हें समसामयिकता, नामसाम्य आदि के आधार पर बृहद् तपागच्छीय उक्त हेमकलशसूरि से समीकृत किया जा सकता है। क्षेमकीर्ति के दूसरे शिष्य नयप्रभ का उक्त पट्टावली को छोड़कर अन्यत्र कोई उल्लेख नहीं मिलता ।
हेमकलशसूरि के शिष्य रत्नाकरसूरि एक प्रभावक आचार्य थे। इन्हीं के समय से इस शाखा का एक अन्य नाम रत्नाकरगच्छ भी पड़ गया। श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाईने रत्नाकरपंचविंशतिका के कर्ता रत्नाकरसूरि और बृहद्तपागच्छीय रत्नाकरसूरि को एक ही व्यक्ति होने की संभावना प्रकट की है, किन्तु श्री हीरालाल रसिकलाल कापडिया' अभिधानराजेन्द्रकोश का उद्धरण देते हुए रत्नाकरपंचविंशतिका के रचनाकार रत्नाकरसूरिको देवप्रभसूरि का शिष्य बतलाते हुए उक्त कृति को वि. सं. १३०७ में रचित बतलाते हैं। यदि श्री कापडिया के उक्त मत को स्वीकार करें तो रत्नाकरपंचविंशतिका के कर्ता ब्रहदतपागच्छीय रत्नाकरसरि नहीं हो सकते क्योंकि उनका समय विक्रमसम्वत् की चौदहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध सुनिश्चित् है।
रत्नाकरसूरि के पट्टधर रत्नप्रभसूरि और रत्नप्रभसूरि के पट्टधर मुनिशेखरसूरि का उक्त पट्टावली को छोड़कर अन्यत्र कोई उल्लेख नहीं मिलता, प्रायः यही बात धर्मदेवसूरि, ज्ञानचन्द्रसूरि और उनके पट्टधर अभयसिंहसूरि के बारे में कही जा सकती है । अभयसिंहसूरि के पट्टधर जयतिलकसूरि हुए । इनके द्वारा रचित आबूचैत्यप्रवाडी० [रचनाकाल वि. सं. १४५६ के आसपास] नामक कृति पायी जाती है । इनके उपदेश से अनुयोगद्वारचूर्णी और कुमारपालप्रतिबोध१२ की प्रतिलिपि तैयार की गयी ।
जयतिलकसूरि के शिष्यों में रत्नसागरसूरि, धर्मशेखरसूरि, रत्नसिंहसूरि, जयशेखरसूरि और माणिक्यसूरि का नाम मिलता है। रत्नसागरसूरि से बृहद्पौषालिक शाखा / रत्नाकरगच्छ की भृगुकच्छशाखा अस्तित्व में
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