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Vol. III- 1997-2002
भद्रकीर्ति....
३०७
शारदा-स्तोत्रम् (सिद्धसारस्वतस्तव)
(द्रुतविलम्बित) कलमरालविहङ्गमवाहना
सितदुकूलविभूषणलेपना । प्रणतभूमिरुहामृतसारिणी
प्रवरदेहविभाभरधारिणी ॥१॥ अमृतपूर्ण कमण्डलु हा (धा )रिणी ।
त्रिदशदानवमानवसेविता भगवती परमैव सरस्वती
मम पुनातु सदा नयनाम्बुजम् ॥२॥ पक्षियों में श्रेष्ठ हंस के वाहनवाली, जो श्वेत रेशमीवस्त्र, आभूषण, तथा चन्दनादि द्रव्यों से विभूषित है, फल से झुके हुए वृक्षों के समान विनम्र लोगों के लिए अमृत के झरना के समान है; उत्तम शरीर कान्ति समूह को धारण करने वाली एवं अमृत-कमण्डल को धारण करने वाली तथा देव-दानव-मानवों द्वारा सेवित देवियों में श्रेष्ठ सरस्वती भगवती मेरे नयनरूप कमल को पवित्र करें (अर्थात्-मुझे दर्शन देकर तृप्त करें) ॥१२॥
जिनपतिप्रथिताखिलवाङ्मयी
गणधरानन-मण्डप-नर्तकी गुरुमुखाम्बुज-खेलन-हंसिका
विजयते जगति श्रुतदेवता ॥३॥ जिनेश्वर द्वारा प्रकाशित समस्त वाणी को लेकर गणधरों के मुखरूप मण्डप में नर्तकीरूप, तथा गुरु के मुखकमल में हंसिनी के समान कीडा करनेवाली सरस्वती जगत् में विजयी होती है ।
अमृतदीधिति-बिम्ब-समाननांत्रिजगती जननिर्मितमाननाम् । नवरसामृतवीचि-सरस्वतीं
प्रमुदितः प्रणमामि सरस्वतीम् ॥४॥ चन्द्रबिम्ब के समान मुखवाली, तीनों लोकों के लोगों के चित्त को विकसित करनेवाली, अर्थात् तीनों लोकों में ज्ञान का प्रतिरूप, नवरस रूप अमृत की नदी की लहरों से युक्त सरस्वती देवी को हर्षपूर्वक प्रणाम करता हूँ ॥४॥
वितत केतकपत्र विलोचने !
विहित-संसृति-दुष्कृत-मोचने ! । धवलपक्ष-विहङ्गम-लाञ्छिते !
जय सरस्वति । पूरितवाञ्छिते ! ॥५॥ केवला के पत्र के समान विकसित नेत्रवाली, संसार के दुष्कृत्यों से मुक्त करानेवाली, श्वेत पंखवाले हंस पक्षी से चिह्नित, भक्तों के मनोरथ पूर्ण करनेवाली सरस्वती ! आपकी जय हो ! ॥५॥
(१) धा, (२) ति ।
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