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________________ Vol. III- 1997-2002 भद्रकीर्ति..... नाभि पाण्डुर पुण्डरीक कुहराद् हृत्पुण्डरीके गलत्पीयूष द्रव वर्षिणि ! प्रविशतीं त्वां मातृकामालिनीम् । दृष्टा भारति ! भारती प्रभवति प्रायेण पुंसो यथा निर्ग्रन्थीनि शतान्यपि ग्रथयति ग्रन्थायुतानां नरः ॥५॥ अमृत की वर्षा करने वाली भारती ! स्वर्ण कलश के विवर से हृदयकमल पर अमृत की वर्षा करती हुई मातृकामालिनी ( अक्षरों का एक यन्त्र विशेष) की ओर जाती हुई, का आगम-ज्ञान विरल मनीषी के समान प्रखर होता है ॥५॥ आपके रूप का ध्यान करनेवाले त्वां मुक्तामय सर्वभूषणधरां शुक्लाम्बराडम्बराम् गौरी गौरीसुधातरङ्गधवला मालोक्य हृत्पङ्कजे । वीणापुस्तक मौक्तिकाक्षवलय श्वेताब्जवलात्कराम् न स्यात् कः शुचि' वृत्तचक्ररचना चातुर्य चिन्तामणिः ॥६॥ अमृत के तरङ्गों से भी अधिक चमत्कृत, श्वेत रूप वाली, श्वेतवस्त्र से विभूषित, वीणा पुस्तक तथा मोती की माला से सुशोभित हाथ तथा मुक्तामय सभी आभूषणों से सुसज्जित होकर श्वेत कमल पर स्थित ऐसे आपके रूप को हृदय कमल में देखकर भला किस के हृदय में काव्य का स्फुरण नहीं होता या चातुर्यरूपी चिन्तामणि की प्राप्ति नहीं होती ? ॥ ६ ॥ पश्येत् स्वां तनुमिन्दु मण्डलगतां त्वां चाभितो मण्डिताम् यो ब्रह्माण्ड करण्ड पिण्डित सुधा डिण्डीरपिण्डैरिव । स्वच्छन्दोद्गत गद्य-पद्यलहरी लीलाविलासामृतैःसानन्दास्तमुपाचरन्ति कवयश्चन्द्रं चकोरा इव ॥७॥ Jain Education International चन्द्रमण्डल में जाते हुए आप अपने शरीर को देखें आपके चारों ओर इन्दु की आभा ऐसी मण्डित की है मानो अमृत सिन्धु के फेन ब्रह्माण्ड हृदय को घेर रखा हो ! कवि लोग अन्तःकरण से स्फुटित अपनी सुन्दर रचना से उस आभा की इस तरह उपासना करते हैं जैसे चकोर चन्द्रमा की उपासना करता है ||७|| ३०५ तद्वेदान्त शिरस्तदोङ्कृति मुखं ज्योतिः कला लोचनम् तत्तद्वेद भुजं तदात्महृदयं तद्गद्य पद्यानि च । यस्त्वद्वर्ष्म विभावयत्यविरतं वाग्देवि ! तत्वाङ्मयम् शब्द ब्रह्मणि निष्णतः स परम ब्रह्मकता मश्नुते ॥८॥ शब्दब्रह्म में रहते हुए परमेश्वर में व्याप्त है, जिसका वेदान्त शिर, ओङ्कार मुख, कलाएँ आँखें, वेद भुजाएँ, तथा गद्य पद्य वाड्मय रूप चरण हैं, जो आपके शरीर की शोभा बढ़ाते हैं ||८|| वाग्बीजं स्मरबीज वेष्टिततमो ज्योतिः कला तद्बहिराष्ट" द्वादश षोड़श द्विगुणित तान्यब्जपत्रान्वितम् १२ । तद्बीजाक्षर कादिवर्णरचितान्यग्रेदलस्यान्तरे हंसः कूटयुते भवेदवितथं यन्त्रं तु सारस्वतम् ॥९॥ (७) पा० १-२ गणां, (८) पा० १-२ स्फुट, (९) पा० १-२ तत्तत्, (१०) पा० १-२ वते, (११) पा० १-२ श्चाष्ट, (१२) पा० १-२ द्वयष्टा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229105
Book TitleBhadrakirti Suri ki Stutiyo ka Kavyashastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMrugendranath Jha
PublisherZ_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf
Publication Year2002
Total Pages16
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size533 KB
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