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Vol. III - 1997-2002
भद्रकीर्ति....
३१३
'प्रबन्धचतुष्टय' अंतर्गता श्रीजिनस्तुतिः
(अनुष्टुभ्)
नम्राखण्डल-सन्मौलि-अस्त-मंदार-दामभिः ।।
यस्याचितं क्रमाम्भोजं भ्राजिते( तं) तं जिनं स्तुवे ॥१॥ इन्द्र ने अपने श्रेष्ठ नमित मुकुट से, मंदारपुष्प की माला से जिनके चरणकमल की पूजा की है, मैं उन्हीं जिन के सुशोभित चरणकमल की स्तुति करता हूँ ॥१॥
यथोपहास्यतां याति तितीर्घः सरितां पतिम् ।
दोर्ध्यामहं तथा जिष्णो जिनानन्त-गुण-स्तुतौ ॥२॥ जिस प्रकार बँधे हुए दोनों हाथों से सागर को तैरकर पार करने की इच्छा रखनेवाला उपहास का पात्र होता है, उसी प्रकार सागर रूप जिनेश्वर भगवान् के अनन्तगुण की स्तुति में मैं उपहास्य बनूँगा ।
तथाऽपि भक्तितः किञ्चिद्वक्ष्येऽहं गुणकीर्तनम् ।
महात्मनां गुणांशोऽपि दुःख-विद्रावणक्षमः ॥३॥ फिर भी, मैं उनके गुण के विषय में भक्तिपूर्वक कुछ कहूँगा, क्योंकि महात्माओं के गुण का अंश मात्र कीर्तन भी दु:ख को नाश करने में सक्षम है ॥३॥
नमस्तुभ्यं जिनेशाय मोहराज-बलच्छिदे ।
निःशेष जंतु संतान-संशयच्छेदि संविदे ॥४॥ मोहराज की शक्ति को नष्ट करनेवाले तथा समस्त जीवों के संशय को दूर करनेवाले ज्ञानी-जिनेश्वर को नमस्कार हो ॥४॥
नमस्तुभ्यं भवांभोधि निमज्जज्जन्तु तारिणे ।
दुर्गापवर्ग सन्मार्ग स्वर्ग-संसर्ग-कारिणे ॥५॥ भवरूप समुद्र में डूबते हुए जीवों के तारनेवाले, कठिन मोक्ष के मार्ग बताने वाले, और स्वर्ग से सम्पर्क कराने वाले जिनेश्वर को नमस्कार हो ॥५॥
नमस्तुभ्यं मनोमल्ल-ध्वंसकाय महीयसे ।
द्वेषद्विप-महाकुम्भ-विपाटन-पटीयसे ॥६॥ आप मनको जीतकर द्वेष रूप गजेन्द्र के कुम्भस्थल को उखाड़कर फेंकने में पटु हैं । अत: आपको नमस्कार है । (मानो विजय के बाद मनुष्य प्रतिकूल परिस्थितियों में भी प्रसन्न रहता है ।) ॥६॥
धन्यास्ते यैर्जिनाधीश ददृशे त्वत्मुखाम्बुजम् ।
मोक्षमार्ग दिशत्साक्षात् द्रव्यानां स्फारदृष्टिभिः ॥७॥ भव्य जीवों को मोक्षमार्ग की देशना देते समय आपके मुखकमल के दर्शन जिन्होंने विकसित आँखों से कर लिये वे धन्य हैं (जो लोग जिनेश्वर के मोक्षमार्ग को अर्थात् आगम को अपनी परिणत चिन्तनशक्ति से समझ रहे हैं वे धन्य हैं ।) १७||
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