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२६२ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र....
Nirgrantha चक्षु आदि इन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाले को इन्द्रियज और मनोजनित को अनिन्द्रियज कहते हैं । ध्यातव्य है कि इन्द्रियजनित ज्ञान में भी मन का व्यापार होता है तथापि मन वहाँ साधारण कारण एवं इन्द्रिय असाधारण कारण होने से उसे इन्द्रियज या इन्द्रिय सांव्यवहारिक-प्रत्यक्ष कहते हैं । इन्द्रिय और अनिन्द्रिय की सहायता से होने वाले ज्ञान को आचार्य उमास्वाति ने-तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् कहकर इसे मतिज्ञान की श्रेणी में रखा है और इसे प्रत्यक्ष न मानकर परोक्ष ज्ञान कहा है । इन्द्रिय निमित्तक और अनिन्द्रियनिमित्तक ज्ञानरूप मतिज्ञान के ४ भेद किए गए हैं- (१) अवग्रह (२) ईहा (३) अवाय (अपाय) और (४) धारणा ।
इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्धित होने पर जो सामान्यज्ञान होता है, जिसमें कोई विशेषण, नाम या विकल्प नहीं होता उसे अवग्रह कहते हैं । यह दो प्रकार का है - व्यंजनावग्रह एवं अर्थावग्रह ।
ईहा - अवग्रह द्वारा गृहीत ज्ञान को विशेष रूप से जानने की इच्छा ईहा है । अवाय (अपाय) - ईहा के द्वारा जाने हुए पदार्थ के विषय में निर्णयात्मक ज्ञान अवाय है ।
धारणा - अवाय से जिस अर्थ का बोध होता है उसका अधिक काल तक स्थिर रहना या स्मृतिरूप हो जाना धारणा है ।
(२) पारमार्थिक या मुख्य-प्रत्यक्ष :- पारमार्थिक-प्रत्यक्ष पूर्णरूपेण विशद होता है । जो ज्ञान अपनी उत्पत्ति में मात्र आत्मा के ही व्यापार की अपेक्षा रखता है, मन और इन्द्रियों की सहायता जिसमें अपेक्षित नहीं है, वह पारमार्थिक प्रत्यक्ष है ।
पारमार्थिक प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं - (१) अवधि (२) मनःपर्यय और (३) केवल जिसका विवेचन हम पूर्व पृष्ठों में कर चुके हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र में प्रत्यक्ष प्रमाण की जो व्याख्या आचार्य उमास्वाति ने की है उसका मुख्य आधार आगमिक परम्परा मान्य प्रमाणद्वय ही रहा है, इसीलिए उन्होंने प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष दो ही भेद किये । प्रत्यक्ष के अन्तर्गत उन्होंने सीधे आत्मा से होने वाले अवधि, मनःपर्यय एवं केवल इन तीन ज्ञानों को ही लिया और इन्द्रिय तथा मन की सहायता से होने वाले ज्ञान को परोक्ष की कोटि में रखा । परवर्ती आचार्यों ने इन्द्रिय और मन सापेक्ष प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक-प्रत्यक्ष की संज्ञा दी एवं अवधि, मनःपर्यय और केवल को पारमार्थिक-प्रत्यक्ष कहा । वस्तुतः देखा जाय तो यह इन्द्रिय-मन प्रत्यक्ष भी अनुमान के समान परोक्ष ही है, क्योंकि उनमें संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय हो सकते हैं जैसे-असिद्ध, विरुद्ध और अनेकान्तिक अनुमान । जैसे शाब्द ज्ञान संकेत की सहायता से होता है और अनुमान व्याप्ति के स्मरण से उत्पन्न होता है, अतएव वे परोक्ष हैं उसी प्रकार सांव्यवहारिक-प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मन तथा आत्मव्यापार की सहायता से उत्पन्न होता है, अत: वह भी परोक्ष ही है । संभवतः उमास्वाति को इन तथ्यों का ज्ञान था इसलिए उन्होंने इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाले ज्ञान को 'तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्' कहकर उसे परोक्ष की कोटि में रखा । भट्ट अकलंक, हेमचंद्र आदि आचार्य जिन्होंने इन्द्रियमनोनिमित्तक प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक-प्रत्यक्ष की संज्ञा दी, उन पर नन्दीसूत्रकार के इन्द्रिय-अनिन्द्रिय रूप से किए गये प्रत्यक्ष विभाग तथा नैयायिकों के 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मक प्रत्यक्ष रूप से की गई प्रत्यक्ष की परिभाषा का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। ऐसा नहीं था कि उमास्वाति नैयायिकों की प्रमाणमीमांसा से परिचित नहीं थे क्योंकि 'नयवादान्तरेण' कहकर तथा प्रत्यक्ष और परोक्ष के अतिरिक्त अनुमान-उपमानादि प्रमाणों को नैयायिकों का कहकर, उन सारे प्रमाणों को इन्हीं दो मुख्य प्रमाणों में अन्तर्भूत माना है, पर यह जरूर था कि उनसे वे प्रभावित नहीं थे । फिर उमास्वाति की प्रत्यक्ष की परिभाषा में ऐसा कोई दोष परिलक्षित नहीं होता जिसका परिहार सांव्यवहारिक-प्रत्यक्ष को मानलेने मात्र से हो गया हो । क्योंकि परवर्ती आचार्य भी अवधि, मनःपर्यय और केवल को पारमार्थिक प्रत्यक्ष तो मानते ही हैं । अतः उमास्वाति द्वारा
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