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Vol. 1-1995
नयविचार
ने जैन दर्शन को मिथ्यामत-समूह कहा । क्योंकि वह अनेकान्त के आधार पर विभिन्न नय या दृष्टिकोण को समन्वित कर लेता है। आचार्य सिद्धसेन के नय चिंतन की एक विशेषता यह है कि उन्होंने नय चिंतन को एक व्यापक परिमाण प्रदान किया।
द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दृष्टि के सौ-सौ भेदों की कल्पना आगमिक व्याख्या साहित्य में उपलब्ध होती है। इसी प्रकार यदि अन्य नयों के भी सौ-सौ नय कल्पित किए जाय तो नयों के सर्वाधिक भेदों के आधार पर सात सौ नयों की भी कल्पना समुचित मानी जा सकती है। मल्लवादी के द्वादशार-नयचक्र में नयों के इन सात सौ भेदों का निर्देश मात्र प्राप्त होता है ।
संभवतः नयों के सात सौ भेद करने की यह परंपरा द्वादशार-नयचक्र के पूर्व की होगी। हम देखते है कि सिद्धसेन दिवाकर ने सर्वप्रथम एक कदम आगे बढकर यह कहा था कि नयों असंख्य हो सकता है। वस्तुत: वस्तु के प्रतिपादन की जितनी शैलियां हो सकती हैं उतने ही नय या नयदृष्टियां हो सकती हैं। एवं जितनी ही नयदृष्टियां होती हैं उतने ही पर-दर्शन होते हैं। क्योंकि प्रत्येक दर्शन किसी दृष्टिविशेष को स्वीकार करके वस्तु तत्त्व का विवेचन करता है । आचार्य सिद्धसेन का नयों के संदर्भ में यह अति व्यापक दृष्टिकोण परवर्ती जैन ग्रंथों में यथावत मान्य रहा है। विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता जिनभद्र (प्राय: ईस्वी० ५५०-५९४) ने भी नयों के संदर्भ में इस व्यापक दृष्टिकोण को स्वीकार किया है। सिद्धसेन के सन्मतिप्रकरण की “जावइया वयणवहा" गाथा किंचित् पाठांतर के साथ विशेषावश्यकभाष्य में उपलब्ध होती है" । वस्तुतः नय दृष्टि एक बंधी बंधाई दृष्टि नहीं है। इसमें एक व्यापकता रही हुई है और जैन आचार्यों ने इस व्यापक दृष्टि को आधार मान कर अपने-अपने ढंग से नयों का विवेचन भी किया
द्वादशार-नयचक्र में आगम प्रसिद्ध नयों के द्विविध वर्गीकरणों को स्वीकार करके उनमें दर्शन युग के सात नयों का समावेश तो किया ही गया है किन्तु इसके अतिरिक्त जैन दर्शन में अन्यत्र अनुपलब्ध ऐसे विधि, नियम, विधि-विधि आदि बारह नयों का उल्लेख भी किया गया है। उनके द्वारा यह नय द्वादशविधनय वर्गीकरण किस प्रकार से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे द्विविध और नैगम आदि सात नयों में अन्तर्भाजित होता है, यह निम्न तालिका से स्पष्ट होता है। १. विधि
द्रव्यार्थिक
व्यवहार २. विधिविधः
संग्रहनय ३. विद्युभयम् ४. विधनियमः ५. उभयम्
नैगमनय ६. उभयविधिः ७. उभयोभयम्
पर्यायार्थिक
ऋजुसूत्र ८. उभयनियमः
शब्दनय ९. नियमः १०. नियमविधिः
समभिरूढ़ ११. नियमोभयम् १२. नियमनियमः
एवंभूतनय उपरोक्त बारह “अर" द्वादशार-नयचक्र की अपनी विशिष्टता है। विधि एवं नियम शब्द का अर्थ अनुक्रम
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