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Vol. I-1995
नयविचार
वह शब्दनय और जो नय अर्थग्राही होता है उसे अर्थनय के नाम से जाना जाता है । इस प्रकार भगवतीसूत्र जैसे प्राचीन आगम में नयों का विभिन्न अपेक्षाओं के आधार पर विभिन्न शैलियों में विविध प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। यहां हमें नयों के संक्षिप्त वर्गीकरण की शैली का ही बोध होता है।
उत्तराध्ययनसूत्र में भी नयों का उल्लेख मिलता हैं किन्तु इसमें उसके भेद-प्रभेदों की कोई चर्चा नहीं मिलती है। इस आधार पर हम यह मान सकते हैं कि उत्तराध्ययन के सैद्धान्तिक अध्यायों के काल (ईस्वी १-२ शताब्दि) तक नयों के वर्गीकरण की संक्षिप्त शैली ही अस्तित्व में रही होगी।
अपेक्षाकृत परवर्ती आगम स्थानांगसूत्र (संकलन प्राय: ईस्वी ३६३)" और अनुयोगद्वारसूत्र (प्राय: गुप्तकाल)२५ में नयों का सप्तविध वर्गीकरण हमें उपलब्ध होता है। यहां दार्शनिक काल के सात नयों का नाम निर्देश मात्र किया गया है। ऐसा लगता है कि जब तत्त्वार्थ और सन्मति प्रकरण आदि ग्रंथों में नय का पंचविध, षविध एवं सप्तविध वर्गीकरण किए गए उसमें से सप्तविध वर्गीकरण को ग्रहण करके उन नामों को स्थानांग में उसके अंतिम वाचना के समय डाल दिया गया हो । यद्यपि अनुयोगद्वार सूत्र के नयद्वार में सातों नयों के लक्षण आदि की चर्चा मिलती है, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि अनुयोगद्वार सूत्र, तत्त्वार्थ और सन्मतिप्रकरण जैसे दार्शनिक ग्रन्थों के बाद ही लिखा गया है। उसकी दार्शनिक शैली स्वयं इस तथ्य का प्रमाण है कि यह आगम ग्रंथ होते हुए भी परवर्ती काल का ही है। इसमें प्रथम चार नय अर्थनय और बाद के तीन नय शब्दनय के रूपमें विवेचित हैं । अर्थनय का तात्पर्य वस्तु या पदार्थ से है। जो नय पदार्थ को अपना विषय बनाते हैं- वे अर्थनय और जो शब्द को अपना विषय बनाते हैं-वे शब्दनय कहलाते हैं। इस प्रकार परवर्ती आगमों में नयों की विस्तृत चर्चा हमें मिलने लगती है। किन्तु इतना अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि प्रस्तुत आगम दार्शनिक युग की ही रचना है।
दार्शनिक युग के ग्रंथों में प्राचीनतम ग्रंथ तत्वार्थाधिगमसूत्र है। इसके प्रथम अध्याय में नय का उल्लेख करने वाले तीन सूत्र उपलब्ध होते हैं । प्रारंभ में यह कहा गया है कि वस्तुतत्त्व का अभिगम नय और प्रमाण के द्वारा होता है । इस प्रकार ज्ञान-प्रक्रिया में नय के स्थान और महत्त्व को स्वीकार किया गया है। अध्याय के अंत के दो सूत्रों में नय का वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है। पहले सूत्र में नयों को नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द ऐसे पांच नयों में विभाजित किया गया है। फिर नैगम के दो भेदों और शब्द के तीन-तीन भेदों का भी उल्लेख मिलता है। ज्ञातव्य है कि सर्वार्थसिद्धि-मान्य पाठ में इन दो सूत्रों के स्थान पर एक ही सूत्र प्राप्त होता है और इसमें सात नयों का निर्देश एक साथ ही कर दिया गया है।
परवर्ती जैन दार्शनिक ग्रंथो में विभिन्न नय दृष्टियों को भिन्न-भिन्न दार्शनिक मंतव्यों के साथ संयोजित करके यह कहा जाता है कि वेदान्त संग्रहनय की अपेक्षा से, बौद्ध दर्शन ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से, न्याय-वैशेषिक दर्शन नैगमनय की अपेक्षा से वस्तु-तत्त्व का विवेचन करते हैं। किन्तु विभिन्न नयों को विभिन्न दर्शनों से संयोजित करने की यह शैली परवर्ती काल की है। तत्त्वार्थभाष्य के काल तक हमें इसका उल्लेख नहीं मिलता है। तत्त्वार्थभाष्य में यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि नैगमादि नय तन्त्रान्तरीय है या स्वतंत्र है ? और इसका उत्तर देते हुए उमास्वाति कहते हैं : "नैगमादि नय न तो तन्त्रान्तरीय हैं और न स्वतंत्र ही हैं। क्योंकि ज्ञेय पदार्थ का स्वरूप ही ऐसा है कि ज्ञेय पदार्थ को भिन्न-भिन्न दृष्टियों से जानने के लिए ही इन नयों का आविर्भाव हुआ हैं"३२ । इससे यह फलित होता है कि बाचक उमास्वाति के काल तक दर्शनों को विभिन्न नयों से संयोजित करने की शैली का विकास नहीं हुआ था। यह एक परवर्ती विकास है। वैसे तन्त्र शब्द का एक अन्य अर्थ करके इस विषय पर एक अन्य दृष्टि से भी विचार किया जा सकता है। प्राचीन ग्रंथों में आगम शब्द के लिए भी तन्त्र शब्द का प्रयोग हुआ है। जैसे हरिभद्रसूरि
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