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'न्यायावतारखार्तिकवृत्ति'
सिंघी जैन ग्रन्थमाला का प्रस्तुत ग्रन्थरत्न अनेक दृष्टि से महत्त्ववाला एवं उपयोगी है। इस ग्रन्थ में तीन कर्ताओं की कृत्तियाँ सम्मिलित हैं । सिद्धसेन दिवाकर जो जैन तर्कशास्त्र के श्राद्य प्रणेता हैं उनकी 'न्यायावतार' छोटी-सी -पद्यबद्ध कृति इस ग्रन्थ का मूल आधार है। शान्स्याचार्य के पद्यबद्ध वार्तिक और गद्यमय वृत्ति ये दोनों 'न्यायावतार' की व्याख्याएँ हैं । मूल तथा व्याख्या में आये हुए मन्तव्यों में से अनेक महत्वपूर्ण मन्तव्यों को लेकर उन पर ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक दृष्टि से लिखे हुए सारगर्भित तथा बहुश्रुततापूर्ण टिप्पण, प्रतिविस्तृत प्रस्तावना और अन्त के तेरह परिशिष्ट - यह सब प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादक श्रीयुत पंडित मालवणिया की कृति है । इन तीनों कृतियों का संक्षिप्त परिचय, विषयानुक्रम एवं प्रस्तावना के द्वारा अच्छी तरह हो जाता है । श्रतएव इस बारे में यहाँ अधिक लिखना अनावश्यक है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ के संपादन की विशिष्टता
यदि समभाव और विवेक की मर्यादा का अतिक्रमण न हो तो किसी अतिपरिचित व्यक्ति के विषय में लिखते समय पक्षपात एवं अनौचित्य दोष से बचना बहुत सरल है । श्रीयुत दलसुखभाई मालवणिया मेरे विद्यार्थी, सहसम्पादक, सहाध्यापक और मित्ररूप से चिरपरिचित हैं । इन्होंने इस ग्रन्थ के सम्पादन का भार जब से हाथ में लिया तब से इसकी पूर्णाहुति तक का मैं निकट साक्षी हूँ । इन्होंने टिप्पण, प्रस्तावना आदि जो कुछ भी लिखा है उसको मैं पहले ही से यथामति देखता तथा उस पर विचार करता आया हूँ, इससे मैं यह तो निःसंकोच कह सकता हूँ कि भारतीय दर्शनशास्त्र के — खासकर प्रमाणशास्त्र के - अभ्यासियों के लिए श्रीयुत मालवणिया ने अपनी कृति में जो सामग्री संचित व व्यवस्थित की है तथा विश्लेषणपूर्वक उस पर जो अपना विचार प्रगट किया है, वह सब अन्यत्र किसी एक जगह दुर्लभ ही नहीं अलभ्य प्राय है । यद्यपि टिप्पण, प्रस्तावना आदि सत्र कुछ जैन परम्परा को केन्द्रस्थान में रखकर लिखा गया है, तथापि सभी संभव स्थलों में तुलना करते समय, करोत्र-करीब समग्र भारतीय दर्शनों का तटस्थ अवलोकनपूर्वक ऐसा ऊहापोह किया है कि वह चर्चा किसी भी दर्शन के अभ्यासी के लिए लाभप्रद सिद्ध हो सके ।
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