________________ 536 जैन धर्म और दर्शन मरण को आमंत्रित करने की विधि नहीं है पर अपने आप आने वाली मृत्यु के लिए निर्भय तैयारी मात्र है। उसी के बाद संथारे का भी अवसर आ सकता है। इस तरह यह सारा विचार अहिंसा और तन्मूलक सद्गुणों को तन्मयता में से ही आया है / जो आज भी अनेक रूप से शिष्टसंमत है / राधाकृष्णन ने जो लिखा है कि बौद्ध-धर्म 'स्युसाइड' को नहीं मानता सो ठीक नहीं है / खुद बुद्ध के समय भिक्षु छन्न और भिक्षु वल्कली ने ऐसे ही असाध्य रोग के कारण श्रात्मवध किया था जिसे तथागत ने मान्य रखा / दोनों भिक्षु अप्रमत्त थे / उनके श्रात्मवध में फर्क यह है कि वे उपवास श्रादि के द्वारा धीरे-धीरे मृत्यु की तैयारी नहीं करते किन्तु एक बारगी शस्त्रवध से स्वनाश करते हैं जिसे 'हरीकरी' कहना चाहिए / यद्यपि ऐसे शस्त्रवध की संमति जैन ग्रन्थों में नहीं है पर उसके समान दूसरे प्रकार के वधों की संमति है। दोनों परम्परायों में भूल भूमिका सम्पूर्ण रूप से एक ही है। और वह मात्र समाधिजीवन की रक्षा / 'स्युसाईंड' शब्द कुछ निंद्य सा है। शास्त्र का शब्द समाधिमरण और पंडित मरण है, जो उपयुक्त है / उक्त छन्न और वल्कली की कथा अनुक्रम से मझिमनिकाय और संयुक्त निकाय में है | लंबा पत्र इसलिए भी उपयोगी होगा कि उस एकाकी जीवन में कुछ रोचक सामग्री मिल जाय | मैं आशा करता हूँ यदि संभव हो तो पहुंच दें। पुनश्च नमूने के लिए कुछ प्राकृत पद्य और उनका अनुवाद देता हूं 'मरणपडियारभूया एसा एवं च ण मरण णिमित्ता जह गंडच्छेअकिरिया गो आयविराहणारूपा / ' समाधिमरण की क्रिया मरण के निमित्त नहीं किन्तु उसके प्रतिकार के लिए है / जैसे फोड़े को नस्तर लगाना, आत्मविराधना के लिए नहीं होता / 'जीवियं नाभिकखेज्जा मरणं नावि पत्थए / ' उसे न तो जीवन की अभिलाषा है और न मरण के लिए वह प्रार्थना ही करता है। 'अप्पा खलु संथारो हवई विसुद्धचरित्तम्भि।' चरित्र में स्थित विशुद्ध आत्मा ही संथारा है। ता० 5.2-43. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org