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मति और श्रुत का भेद
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मनःपर्याय में तथा ' केवलज्ञान और केवलदर्शन में माने जानेवाले श्रागमसिद्ध भेद को भी तर्क के बल पर मान्य किया है ।
उपाध्यायजी ने मति और श्रुत की चर्चा करते हुए उनके भेद, भेद की सीमा और अभेद के बारे में, अपने समय तक के जैन वाङ्मय में जो कुछ चिंतन पाया जाता था उस सत्र का, अपनी विशिष्ट शैली से उपयोग करके, उपर्युक्त तीनों प्रयत्नों का समर्थन सूक्ष्मतापूर्वक किया है । उपध्यायजी की सूक्ष्म दृष्टि प्रत्येक प्रयत्न के आधारभूत दृष्टिबिन्दु तक पहुँच जाती है । इसलिए वे परस्पर विरोधी दिखाई देने वाले पक्षभेदों का भी समर्थन कर पाते हैं । जैन विद्वानों में उपाध्यायजी ही एक ऐसे हुए जिन्होंने मति और श्रुत की श्रागमसिद्ध भेदरेखाओं को ठीक-ठीक बतलाते हुए भी सिद्ध सेन के अभेदगामी पक्ष को 'नव्य' शब्द के [५० ] द्वारा श्लेष से नवीन और स्तुत्य सूचित करते हुए, सूक्ष्म और हृदयङ्गम तार्किक शैली से समर्थन किया ।
मति और श्रुत की भेदरेखा स्थिर करनेवाले तथा उसे मिटाने वाले ऐसे तीन प्रयत्नों का जो ऊपर वर्णन किया है, उसकी दर्शनान्तरीय ज्ञानमीमांसा के साथ जब हम तुलना करते हैं, तब भारतीय तत्त्वज्ञों के चिन्तन का विकासक्रम तथा उसका एक दूसरे पर पड़ा हुआ असर स्पष्ट ध्यान में आता है । प्राचीनतम समय से भारतीय दार्शनिक परंपराएँ आगम को स्वतन्त्र रूप से अलग ही प्रमाण मानती रहीं। सबसे पहले शायद तथागत बुद्ध ने ही श्रागम के स्वतन्त्र प्रामाण्य पर आपत्ति उठाकर स्पष्ट रूप से यह घोषित किया कि तुम लोग मेरे वचन को भी अनुभव और तर्क से जाँच कर ही मानोर । प्रत्यक्षानुभाव और तर्क पर बुद्ध के द्वारा इतना अधिक भार दिए जाने के फलस्वरूप श्रागम के स्वतन्त्र प्रामाण्य विरुद्ध एक दूसरी भी विचारधारा प्रस्फुटित हुई । श्रागम को स्वतन्त्र और अतिरिक्त प्रमाण माननेवाली विचारधारा प्राचीनतम थी जो मीमांसा, न्याय और सांख्ययोग दर्शन में आज भी अक्षुण्ण है, आगम को अतिरिक्त प्रमाण न मानने की प्रेरणा करने वाली दूसरी विचारधारा यद्यपि अपेक्षाकृत पीछे की है, फिर भी उसका स्वीकार केवल बौद्ध सम्प्रदाय तक ही सीमित न रहा । उसका असर आगे जाकर वैशेषिक दर्शन के व्याख्याकारों पर भी पड़ा
१ देखो, सन्मति द्वितीयकाण्ड, तथा ज्ञानविन्दु पृ० ३३ ।
२ ' तापाच्छेदाच्च निकषात्सुवर्णमिव पण्डितैः । परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मध्चो - न तु गौरवात् ॥” – तत्त्वसं० का ० ३३८ |
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