________________
ક્
जैन धर्म और दर्शन
केवलज्ञान तथा केवलदर्शन के क्रमभावित्व, सहभाविव और अभेद, इन तीन पक्षों को मुख्य-मुख्य दलीलें तथा उक्त तीन पक्ष किस-किस नय की अपेक्षा से है ? इत्यादि का वर्णन | पृ० – ४३ ।
बोलने तथा सुनने की शक्ति न होने पर भी एकेन्द्रिय में श्रुत उपयोग स्वीकार किया जाता है, सो किस तरह ? इस पर विचार । पृ० - ४५ ।
पुरुष व्यक्ति में स्त्री-योग्य और स्त्री व्यक्ति में पुरुष योग्य भाव पाए जाते हैं और कभी तो किसी एक ही व्यक्ति में स्त्री-पुरुष दोनों के बाह्याभ्यन्तर लक्षण होते हैं । इसके विश्वस्त सबूत । पृ० -५३, नोट |
श्रावकों की दया जो सवा विश्वा कही जाती है, उसका खुलासा । पु० -- ६१, नोट ।
मनः पर्याय उपयोग को कोई श्राचार्य दर्शनरूप भी मानते हैं, इसका प्रमाण । पृ० - ६२, नोट ।
जातिभव्य किसको कहते हैं ? इसका खुलासा । पृ० - ६५, नोट । औपशमिकसम्यक्त्व में दो जीवस्थान माननेवाले और एक जीवस्थान मानने वाले आचार्य अपने-अपने पक्ष की पुष्टि के लिए पर्याप्त अवस्था में श्रपशमिक सम्यक्त्व पाए जाने और न पाए जाने के विषय में क्या क्या युक्ति देते हैं ? इसका सविस्तर वर्णन । पृ० - ७०, नोट ।
संमूर्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति के क्षेत्र और स्थान तथा उनकी आयु और योग्यता जानने के लिए श्रागमिक प्रमाण | पृ० – ७२, नोट
स्वर्ग से च्युत होकर देव किन स्थानों में पैदा होते हैं ?. इसका कथन । पृ० --- ७३, नोट ।
चतुर्दर्शन में कोई तीन हो जीवस्थान मानते हैं और कोई छह | यह मतभेद इन्द्रियपर्याप्ति की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं पर निर्भर है। इसका सप्रमाण कथन | पृ० - ७६, नोट ।
कर्मग्रन्थ में अशी पञ्चेन्द्रिय के स्त्री और पुरुष, ये दो भेद माने हैं और सिद्धान्त में एक नपुंसक, सो किस अपेक्षा से ? इसका प्रमाण । पृ० --- नोट ।
अज्ञान त्रिक में दो गुणस्थान माननेवालों का तथा तीन गुणस्थान माननेवालों का आशय क्या है ? इसका खुलासा | पृ० -- ८२ ।
- कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्याओं में छह गुणस्थान इस कर्मग्रन्थ में माने हुए हैं और पञ्चसंग्रह आदि ग्रन्थों में उक्त तीन लेश्यात्रों में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org