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माव
निषेध किया है। यह बात कर्मकाण्ड की ४५ और ८४६वीं माथाओं के देखने से स्पष्ट हो जाती है।
(१६) 'भाव
यह विचार एक जीव में किसी विवक्षित समय में पाए जानेवाले भावों का है। ___एक जीव में भिन्न-भिन्न समय में पाए जानेवाले भाव और अनेक जीव में एक समय में या भिन्न-भिन्न समय में पाए जानेवाले भाव प्रसङ्ग-वश लिखे जाते हैं। पहले तीन गुणस्थानों में श्रौदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक, ये तीन भाव, चौथे से ग्यारहवें तक आठ गुणस्थानों में पाँचोंभाव, बारहवें गुणास्थान में औपशमिक के सिवाय चार भाव और तेरहवें तथा चौदहवे गुणस्थान में औपशमिक-क्षायोपशमिक के सिवाय तीन भाव होते हैं ।
अनेक जीवों की अपेक्षा से गुणस्थानों में भावों के उत्तर भेद
क्षायोपशमिक–पहले दो गुणस्थानों में तीन अज्ञान, चक्षु आदि दो दर्शन, दान आदि पाँच लब्धियाँ, ये १०: तीसरे में तीन ज्ञान, तीन दर्शन, मिश्रदृष्टि, पाँच लब्धियाँ, ये १२; चौथे में तीसरे गुणस्थानवाले १२ किन्तु मिश्रदृष्टि के स्थान में सम्यक्त्य; पाँचवें में चौथे गुणस्थानवाले बारह तथा देशविरति, कुल १३; छठे, सातवें में उक्त तेरह में से देश-विरति को घटाकर उनमें सर्वविरति और मनःपर्यवज्ञान मिलाने से १४; आठवें, नौगे और दसवें गुणस्थानों में उक्त चौदह में से सम्यक्त्व के सिवाय शेष १३; ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में उक्त तेरह में से चारित्र को छोड़कर शेष १२ क्षायोपशमिक भाव हैं । तेरहवें और चौदहवें में दायोपशमिकभाव नहीं है।
औदयिक-पहले गणस्थान में अज्ञान आदि २१; दूसरे में मिथ्यात्व के सिवाय २०; तीसरे-चौथे में अज्ञान को छोड़ १६; पाँचवें में देवगति, नारकगति के सिवाय उस्त उन्नीस में से शेष १७, छठे में तिर्यञ्चगति और असंयम घटाकर १५; सातवे में कृष्ण आदि तीन लेश्याओं को छोड़कर उक्त पन्द्रह में से शेष १२: पाठ-नौवें में तेजः और पद्म लेश्या के सिवाय १०; दसव में क्रोध, मान, माया और तीन वेद के सिवाय उक्त दस में से शेष ४, ग्यारहवें, बारहवें
और तेरहवें गुणस्थान में संज्वलनलोभ को छोड़ शेष ३ और चौदहवें गुणस्थान में शुक्ललेश्या के सिवाय तीन में से मनुष्यगति और असिद्धत्व, ये दो औदयिकभाव हैं।
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