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कुछ पारिभाषिक शब्द (१) लेश्या '
१-लेश्या के (क) द्रव्य और (ख) भाव, इस प्रकार दो भेद हैं।
(क) द्रव्यलेश्या, पुद्गल-विशेषात्मक है। इसके स्वरूप के संबन्ध में मुख्यतया तीन मत हैं--(१) कर्मवर्गणा-निष्पन्न, (२) कर्म-निष्यन्द और (३) योगपरिणाम ।
पहले मत का यह मानना है कि लेश्या द्रव्य, कर्म-वर्गणा से बने हुए हैं; फिर भी वे आठ कर्म से भिन्न ही हैं, जैसा कि कार्मणशरीर । यह मत उत्तरा. ध्ययन, अ० ३४ की टीका, पृ० ६५० पर उल्लिखित है।
दूसरे मत का आशय यह है कि लेश्या-द्रव्य, कर्म-निष्यंदरूप ( बध्यमान कर्मप्रवाहरूप ) है । चौदहवें गुणस्थान में कर्म के होने पर भी उसका निष्यन्द न होने से लेश्या के अभाव की उपपति हो जाती है। यह मत उक्त पृष्ठ पर ही निर्दिष्ट है, जिसको टीकाकार वादिवैताल श्री शान्तिसूरि ने 'गुरवस्तु व्याचक्षते' कहकर लिखा है।
तीसरा मत श्री हरिभद्रसूरि आदि का है । इस मत का श्राशय श्री मलयगिरिजी ने पन्नवणा पद १७ की टीका, पृ०३३० पर स्पष्ट बतलाया है। वे लेश्या-द्रव्य को योगवर्गणा अन्तर्गत स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं । उपाध्याय श्रीविनयविजयजी ने अपने आगम दोहनरूप लोकप्रकाश, सर्ग ३, श्लोक २८५ में इस मत को ही ग्राह्य ठहराया है।
ख) भावलेश्या, श्रात्मा का परिणाम-विशेष है, जो संक्लेश और योग से अनुगत है । संक्लेश के तीव्र, तीव्रतर, तीनतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि अनेक भेद होने से वस्तुतः भावलेश्या, असंख्य प्रकार की है तथापि संक्षेप में छह विभाग करके शास्त्र में उसका स्वरूप दिखाया है। देखिये, चौथा कर्मग्रन्थ, गा० १३ वीं । छह भेदों का स्वरूप समझने के लिए शास्त्र में नीचे लिखे दो दृष्टान्त दिये गए हैं. (१)-कोई छह पुरुष जम्बूफल ( जामुन ) खाने की इच्छा करते हुए चले जा रहे थे, इतने में जम्बू वृक्ष को देख उनमें से एक पुरुष बोला- लीजिए,
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