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________________ २५० जैन धर्म और दर्शन हैं। प्रथम विभाग की तीव्रता, न्यूनाधिक प्रमाण में तीन गुणस्थानों (भूमिकाओं) तक रहती है। इससे पहले तीन गुणस्थानों में दर्शन-शक्ति के अविर्भाव का सम्भव नहीं होता । कषाय के उक्त प्रथम विभाग की अल्पता, मन्दता या अभाव होते ही दर्शन-शक्ति व्यक्त होती है । इसी समय श्रात्मा की दृष्टि खुल जाती है । दृष्टि के इस उन्मेष को विवेकख्याति, भेदज्ञान, प्रकृति-पुरुषान्यता-साक्षात्कार और ब्रह्मज्ञान भी कहते हैं । इस शुद्धिदृष्टि से आत्मा जड़-चेतन का भेद, असंदिग्ध रूप से जान लेता है । यह उसके विकास क्रम की चौथी भूमिका है इसी भूमिका में से बह अन्तर्दृष्टि बन जाता है और आत्म मन्दिर में वर्तमान तात्त्विक परमात्म स्वरूप को देखता है । पहले की तीन भूमिकाओं में दर्शन मोह और अनन्तानुबन्धी नाम के कषाय संस्कारों की प्रबलता के कारण आत्मा अपने परमात्म-भाव को देख नहीं सकता । उस समय वह बर्हिष्टि होता है | दर्शनमोह आदि संस्कारों के वेग के कारण उस समय उसकी दृष्टि इतनी अस्थिर व चंचल बन जाती है कि जिससे वह अपने में ही वर्तमान परमात्म स्वरूप या ईश्वरत्व को देख नहीं सकता । ईश्वरत्व भीतर ही है, परन्तु है वह अत्यन्त सूक्ष्म; इसलिए स्थिर व निर्मल दृष्टि के द्वारा ही उसका दर्शन किया जा सकता है। चौथी भूमिका या चौथे गुणस्थान को परमात्म-भाव के या ईश्वरत्व के दर्शन का द्वार कहना चाहिए। और उतनी हद तक पहुँचे हुए आत्मा को अन्तरात्मा कहना चाहिए । इसके विपरीत पहली तीन भूमिकाओं में वर्तने के समय, आत्मा को बहिरात्मा कहना चाहिये । क्योंकि वह उस समय बाहरी वस्तुओं में ही श्रात्मत्व की भ्रान्ति से इधर-उधर दौड़ लगाया करता है | चौथी भूमिका में दर्शन मोह तथा अनन्तानुबन्धी संस्कारों का वेग तो नहीं रहता, पर चारित्र-शक्ति के श्रावरण-भूत संस्कारों का वेग अवश्य रहता है । उनमें से अप्रत्याख्यानावरण संस्कार का वेग चौथी भूमिका से श्रागे नहीं होता इससे पाँचवीं भूमिका में चारित्र शक्ति का प्राथमिक विकास होता है; जिससे उस समय आत्मा, इन्द्रिय-जय यम-नियम आदि को थोड़े बहुत रूप में करता है -- थोड़े बहुत नियम पालने के लिए सहिष्णु हो जाता है । प्रत्याख्यानावरण नामक संस्कार — जिनका वेग पाँचवीं भूमिका से आगे नहीं है- -उनका प्रभाव पड़ते ही चारित्र-शक्ति का विकास और भी बढ़ता है, जिससे आत्मा बाहरी भोगों से हटकर पूरा संन्यासी बन जाता है । यह हुईं विकास की छठी भूमिका । इस भूमिका में भी चारित्र शक्ति के त्रिपक्षी 'संज्वलन' नाम के संस्कार कभी-कभी ऊधम मचाते हैं, जिससे चारित्र - शक्ति का विकास दमता नहीं, अन्तराय इस प्रकार आते हैं, जिस प्रकार वायु के वेग के कारण, दीप की ज्योति पर उसकी शुद्धि या स्थिरता में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229066
Book TitleKarmstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Karma
File Size96 KB
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