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________________ कर्मस्तव २४७ उसके श्रारम्भ की गाथा से स्पष्ट जान पड़ता है कि उसका असली नाम, 'बन्धोदय सत्त्वयुक्तस्तव' है । यथा नमिऊण जिवरिंदे तिहुयणवरनाणदंसणपईवे । वंधुदयसंततं वोच्छामि थयं निसामेह ॥ १ ॥ प्राचीन के आधार से बनाए गए इस कर्मग्रन्थ का 'कर्मस्तव' नाम कर्ता ने इस ग्रन्थ के किसी भाग में उल्लिखित नहीं किया है, तथापि इसका 'कर्मस्तव' नाम होने में कोई संदेह नहीं है । क्योंकि इसी ग्रन्थ के कर्त्ता श्री देवेन्द्रसूरि ने अपने रचे तीसरे कर्मग्रन्थ के अन्त में 'नेवं कम्मत्थयं सोउं ' इस अंश से उस नाम का कथन कर ही दिया है। स्तव शब्द के पूर्व में 'बन्धोदयसत्त्व' या 'कर्म' कोई भी शब्द रखा जाए, मतलब एक ही है । परन्तु इस जगह इसकी चर्चा, केवल इसलिए की गई है कि प्राचीन दूसरे कर्म ग्रन्थ के और गोम्मटसार के दूसरे प्रकरण के नाम में कुछ भी फरक नहीं है। यह नाम की एकता, श्वेताम्बर - दिगम्बर आचार्यों के ग्रन्थ- रचना-विषयक पारस्परिक अनुकरण का पूरा प्रमाण है । यह बात ध्यान देने योग्य है कि नाम सर्वदा समान होने पर भी गोम्मटसार में तो 'स्तव' शब्द की व्याख्या बिलकुल विलक्षण है, पर प्राचीन द्वितीय कर्मग्रन्थ में तथा उसकी टीका में 'स्तव' शब्द के उस विलक्षण अर्थ की कुछ भी सूचना नहीं है । इससे यह जान पड़ता है कि यदि गोम्मटसार के बन्धोदयसत्त्वयुक्त नाम का आश्रय लेकर प्राचीन द्वितीय कर्मग्रन्थ का वह नाम रखा गया होता तो उसका विलक्षण अर्थ भी इसमें स्थान पाता । इससे यह कहना पड़ता है कि प्राचीन द्वितीय कर्मग्रन्थ की रचना गोम्मटसार से पूर्व हुई होगी । गोम्मटसार की रचना का समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी बतलाया जाता है-प्राचीन द्वितीय कर्मग्रन्थ की रचना का समय तथा उसके कर्ता का नाम आदि ज्ञात नहीं । परन्तु उसकी टीका करने वाले 'श्री गोविन्दाचार्य' हैं जो श्री देवनाग के शिष्य थे। श्री गोविंदाचार्य का समय भी संदेह की तह में छिपा है पर उनकी बनाई हुई टीका को प्रति--जो वि० सं० १२७७ में ताड़पत्र पर लिखी हुई है— मिलती है। इससे यह निश्चित है कि उनका समय, वि० सं० १२७७ से पहले होना चाहिए । यदि अनुमान से टीकाकार का समय १२ वीं शताब्दी माना जाए तो भी यह अनुमान करने में कोई आपत्ति नहीं कि मूल 'द्वितीय कर्मग्रन्थ की रचना उससे सौ-दो सौ वर्ष पहले ही होनी चाहिए | इससे यह हो सकता है कि कदाचित् उस द्वितीय कर्मग्रन्थ का ही नाम गोम्मटसार में लिया गया हो और स्वतंत्रता दिखाने के लिए 'स्तव' शब्द की व्याख्या बिलकुल बदल दी गई हो । अस्तु, इस विषय में कुछ भी निश्चित करना साहस है । यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229066
Book TitleKarmstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Karma
File Size96 KB
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