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________________ कर्मतत्त्व कर्मग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद के साथ तथा हिन्दी अनुवाद प्रकाशक आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल के साथ मेरा इतना घनिष्ठ संबन्ध रहा है कि इस अनुवाद के साथ भी पूर्वकथन रूप से कुछ न कुछ लिख देना मेरे लिए अनिवार्य-सा हो जाता है। जैन वाङ्मय में इस समय जो श्वेताम्बरीय तथा दिगम्बरीय कर्मशास्त्र मौजूद हैं उनमें से प्राचीन माने जानेवाले कर्मविषयक ग्रन्थों का साक्षात् संबन्ध दोनों परम्पराएँ आग्रायणीय पूर्व के साथ बतलाती हैं। दोनों परम्पराएँ आग्रायणीय पूर्व को दृष्टिवाद नामक बारहवें अङ्गान्तर्गत चौदह पूर्वो में से दूसरा पूर्व कहती हैं और दोनों श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्पराएँ समान रूप से मानती हैं कि सारे अङ्ग तथा चौदह पूर्वे यह सब भगवान् महावीर की सर्वज्ञ वाणी का साक्षात् फल है। ' इस साम्प्रदायिक चिरकालीन मान्यता के अनुसार मौजूदा सारा कर्मविषयक जैन वाङ्मय शब्दरूप से नहीं तो अन्ततः भावरूप से भगवान् महावीर के साक्षात् उपदेश का ही परम्परा प्रास सारमात्र है। इसी तरह यह भी साम्प्रदायिक मान्यता है कि वस्तुतः सारी अङ्गविद्याएँ भावरूप से केवल भगवान् महावीर की ही पूर्वकालीन नहीं, बल्कि पूर्व-पूर्व में हुए अन्यान्य तीर्थङ्करों से भी पूर्वकाल को अतएव एक तरह से अनादि हैं । प्रवाहरूप से अनादि होने पर भी समय-समय पर होनेवाले नव-नव तीर्थदरों के द्वारा वे पूर्व-पूर्व अङ्गविद्याएँ नवीन नवीनत्व धारण करती हैं। इसी मान्यता को प्रकट करते हुए कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा में, नैयायिक जयन्त भट्ट का अनुकरण करके बड़ी खूबी से कहा है कि-'अनादय एवैता विद्याः संक्षेपविस्तरविवक्षया नवनवी. भवन्ति, तत्तत्कर्तृकाश्चोच्यन्ते । किन्नाौषीः न कदाचिदनीदृशं जगत ।' उक्त साम्प्रदायिक मान्यता ऐसी है कि जिसको साम्प्रदायिक लोग आज तक अक्षरशः मानते आए हैं और उसका समर्थन भी वैसे ही करते आए हैं जैसे मीमांसक लोग वेदों के अनादित्व की मान्यता का । साम्प्रदायिक लोग दो प्रकार के होते हैं—बुद्धि-अप्रयोगी श्रद्धालु जो परम्पराप्राप्त वस्तु को बुद्धि का प्रयोग बिना किए ही श्रद्धामात्र से मान लेते हैं और बुद्धिप्रयोगी श्रद्धालु जो परम्पराप्राप्त वस्तु को केवल श्रद्धा से मान ही नहीं लेते पर उसका बुद्धि के द्वारा यथा सम्भव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229064
Book TitleKarmtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Karma
File Size616 KB
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