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________________ १७१ अनेकान्तवाद 'सत्' शब्द की अर्थ मर्यादा में से हटा देती है तब उसके द्वारा फलित होने वाला विश्व का दर्शन ऋजुसूत्र नय है। क्योंकि वह अतीत-अनागत के चक्रव्यूह को छोड़कर सिर्फ वर्तमान की सीधी रेखा पर चलता है। उपर्युक्त तीनों मनोवृत्तियाँ ऐसी हैं जो शब्द या शब्द के गुण-धर्मों का श्राश्रय बिना लिये ही किसी भी वस्तु का चिन्तन करती हैं। अतएव वे तीनों प्रकार के चिन्तन अर्थ नय हैं । पर ऐसी भी मनोवृत्ति होती है जो शब्द के गुण धर्मों का आश्रय लेकर ही अर्थ का विचार करती है । अतएव ऐसी मनोवृत्ति से फलित अर्थचिन्तन शब्द नय कहे जाते हैं। शाब्दिक लोग ही मुख्यतया शब्द नय के अधिकारी हैं; क्योंकि उन्हीं के विविध दृष्टि-चिन्दुओं से शब्दनय में विविधता आई है। जो शाब्दिक सभी शब्दों को अखण्ड अर्थात् अव्युत्पन्न मानते हैं वे व्युत्पत्ति भेद से अर्थ भेद न मानने पर भी लिङ्ग, पुरुष, काल आदि अन्य प्रकार के शब्दधर्मों के भेद के आधार पर अर्थ का वैविध्य बतलाते हैं । उनका यह अर्थभेद का दर्शन शब्द नय या साम्प्रत नय है। प्रत्येक शब्द को व्युत्पत्ति सिद्ध ही माननेवाली मनोवृत्ति से विचार करनेवाले शाब्दिक पर्याय अर्थात् एकार्थक समझे जानेवाले शब्दों के अर्थ में भी व्युत्पत्ति भेद से भेद बतलाते हैं । उनका वह शक्र, इन्द्र आदि जैसे पर्याय शब्दों के अर्थ भेद का दर्शन समभिरूढ़ नय कहलाता है । व्युत्पत्ति के भेद से ही नहीं, बल्कि एक ही व्युत्पत्ति से फलित होनेवाले अर्थ की मौजूदगी और गैर-मौजूदगी के भेद के कारण से भी जो दर्शन अर्थ भेद मानता है वह एवंभूत नय कहलाता है । इन तार्किक छः नयों के अलावा एक नैगम नाम का नय भी है। जिसमें निगम अर्थात् देश रूढ़ि के अनुसार अभेदगामी और भेदगामी सब प्रकार के विचारों का समावेश माना गया है । प्रधानतया ये ही सात नय हैं । पर किसी एक अंश को अर्थात् दृष्टिकोण को अवलम्बित करके प्रवृत्त होनेवाले सब प्रकार के विचार उस-उस अपेक्षा के सूचक नय ही हैं। शास्त्र में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो नय भी प्रसिद्ध हैं पर वे नय उपयुक्त सात नयों से अलग नहीं हैं किन्तु उन्हीं का संक्षिप्त वर्गीकरण या भूमिका मात्र हैं। द्रव्य अर्थात् सामान्य, अन्वय, अभेद या एकत्व को विषय करनेवाला विचार मार्ग द्रव्यार्थिक नय है। नैगम, संग्रह और व्यवहार-ये तीनों द्रव्यार्थिक ही हैं। इनमें से संग्रह तो शुद्ध अभेद का विचारक होने से शुद्ध या मूल ही द्रव्यार्थिक है जब कि व्यवहार और नैगम की प्रवृत्ति भेदगामी होकर भी किसी न किसी प्रकार के अभेद को भी अवलम्बित करके ही चलती है । इसलिए वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229062
Book TitleAnekantvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size556 KB
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