SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म और दर्शन इतिहास और पुरानी यशोगाथाओं के सहारे न जीवित रह सकती है और न प्रतिष्ठा पा सकती है जब तक वह भावी-निर्माण में योग न दे। इस दृष्टान्त से भी जैन-संस्कृति पर विचार करना संगत है। हम ऊपर बतला आए हैं कि यह संस्कृति मूलतः प्रवृत्ति, अर्थात् पुनर्जन्म से छुटकारा पाने की दृष्टि से आविर्भूत हुई। इसके आचार-विचार का सारा दांचा उसी लक्ष्य के अनुकूल बना है । पर हम यह भी देखते हैं कि आखिर में वह संस्कृति व्यक्ति तक सीमित न रही। उसने एक विशिष्ट समाज का रूप धारण किया । निवृत्ति और प्रवृत्ति समाज कोई भी हो वह एक मात्र निवृत्ति की भूलभुलैयों पर न जीवित रह सकता है और न वास्तविक निवृत्ति ही साध सकता है। यदि किसी तरह निवृत्ति को न माननेवाले और सिर्फ प्रवृत्तिचक्र का ही महत्त्व माननेवाले आखिर में उस प्रवृत्ति के तूफान और अांधी में ही फंसकर मर सकते हैं तो यह भी उतना ही सच है कि प्रवृत्ति का आश्रय बिना लिए निवृत्ति हवा का किला ही बन जाता है । ऐतिहासिक और दार्शनिक सत्य यह है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति एक ही मानवकल्याण के सिक्के के दो पहलू हैं। दोष, गलती, बुराई और अकल्याण से तब तक कोई नहीं बच सकता जब तक वह दोषनिवृत्ति के साथ ही साथ सद्गुणों की और कल्याणमय प्रवृत्ति में बल न लगावे। कोई भी बीमार केवल अपथ्य और पुष्टि कुपथ्य से निवृत्त होकर जीवित नहीं रह सकता । उसे साथ-ही-साथ पथ्यसेवन करना चाहिए । शरीर से दूषित रक्त को निकाल डालना जीवन के लिये अगर जरूरी है तो उतना ही जरूरी उसमें नए रुधिर का संचार करना भी है। निवृत्तिलक्षी प्रवृत्ति ऋषभ से लेकर आज तक निवृत्तिगामी कहलाने वाली जैन-संस्कृति भी जो किसी न किसी प्रकार जीवित रही है वह एक मात्र निवृत्ति के बल पर नहीं किन्तु कल्याणकारी प्रवृत्ति के सहारे पर । यदि प्रवर्तक-धर्मी ब्राह्मणों ने निवृत्ति मार्ग के सुन्दर तत्वों को अपनाकर एक व्यापक कल्याणकारी संस्कृति का ऐसा निर्माण किया है जो गीता में उज्जीवित होकर आज नए उपयोगी स्वरूप में गांधीजी के द्वारा पुनः अपना संस्करण कर रही है तो निवृत्तिलक्षी जैन संस्कृति को भी कल्याणाभिमुख श्रावश्यक प्रवृत्तियों का सहारा लेकर ही आज की बदली हुई परिस्थिति में जीना होगा । जैन-संस्कृति में तत्त्वज्ञान और प्राचार के जो मूल नियम हैं और वह जिन आदर्शों को श्राज तक पूँजी मानती आई है उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229060
Book TitleJain Sanskruti ka Hridaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & Culture
File Size233 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy