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________________ जैन धर्म और दर्शन को बुद्धिपूर्वक अदा करने में बिताया जो प्रजा पालन की जिम्मेवारी के साथ उन पर आ पड़ी थीं। उन्होंने उस समय के बिलकुल अपढ़ लोगों को लिखना-पढ़ना सिखाया, कुछ काम-धन्धा न जानने वाले बनचरों को उन्होंने खेती-बाड़ी तथा बढ़ई, कुम्हार श्रादि के जीवनोपयोगी धन्धे सिखाए, आपस में कैसे बरतना, कैसे नियमों का पालन करना यह भी सिखाया। जब उनको महसूस हुआ कि अब बड़ा पुत्र भरत प्रजाशासन की सब जवाबदेहियों को निबाह लेगा तब उसे राज्यभार सौंप कर गहरे श्राध्यात्मिक प्रश्नों की छानबीन के लिए उत्कट तपस्वी होकर घर से निकल पड़े। ऋषभ देव की दो पुत्रियाँ ब्राह्मी और सुन्दरी नाम की थीं। उस ज़माने में भाई-बहन के बीच शादी की प्रथा प्रचलित थी। सुन्दरी ने इस प्रथा का विरोध करके अपनी सौम्य तपस्या से भाई भरत पर ऐसा प्रभाव डाला कि जिससे भरत ने न केवल सुन्दरी के साथ विवाह करने का विचार ही छोड़ा बल्कि वह उसका भक्त बन गया । ऋग्वेद के यमीसूक्त में भाई यम ने भगिनी यमी की लग्न-मांग को अस्वीकार किया जब कि भगिनी सुन्दरी ने भाई भरत की लग्न मांग को तपस्या में परिणत कर दिया और फलतः भाई-बहन के लग्न की प्रतिष्ठित प्रथा नामशेष हो गई। ऋषभ के भरत और बाहुबली नामक पुत्रों में राज्य के निमित्त भयानक युद्ध शुरू हुआ । अन्त में द्वन्द युद्ध का फैसला हुआ: भरत का प्रचण्ड प्रहार निष्फल गया। जब बाहुबली की बारी आई और समर्थतर बाहुबली को जान पड़ा कि मेरे मुष्टि प्रहार से भरत की अवश्य दुर्दशा होगी तब उसने उस भ्रातृविजयाभिमुख क्षण को आत्मविजय में बदल दिया। उसने यह सोच कर कि राज्य के निमित्त लड़ाई में विजय पाने और वैर-प्रति वैर तथा कुटुम्ब कलह के बीज बोने की अपेक्षा सच्ची विजय अहंकार और तुष्णा-जय में ही है । उसने अपने बाहुबल को क्रोध और अभिमान पर ही जमाया और अवैर से वैर के प्रतिकार का जीवन्तदृष्टान्त स्थापित किया । फल यह हुआ कि अन्त में भरत का भी लोभ तथा गर्व खर्व हुआ। एक समय था जब कि केवल क्षत्रियों में ही नहीं पर सभी वर्गों में मांस खाने की प्रथा थी । नित्य प्रति के भोजन, सामाजिक उत्सव, धार्मिक अनुष्ठान के अवसरों पर पशु-पक्षिों का वध ऐसा ही प्रचलित और प्रतिष्ठित था जैसा आज नारियलों और फलों का चढ़ाना । उस युग में यदुनन्दन नेमिकुमार ने एक अजीब कदम उठाया | उन्होंने अपनी शादी पर भोजन के वास्ते कतल किये जानेवाले निर्दोष पशु-पक्षिों की आर्त मूक वाणी से सहसा पिघलकर निश्चय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229060
Book TitleJain Sanskruti ka Hridaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & Culture
File Size233 KB
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