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अचेलत्व-सचेलत्व और सचेलत्व ये दोनों महावीर के जीवनकाल में ही विद्यमान थे या उनसे भी पूर्वकाल में प्रचलित पापित्यिक परंपरा में भी थे ? महावीर ने पापित्यिक परंपरा में ही दीक्षा ली थी और शुरू में एक वस्त्र धारण किया था। इससे यह तो जान पड़ता है कि पाश्र्वापत्यिक परंपरा में सचेलत्व चला श्राता था। पर हमें जानना तो यह है कि अचेलत्व भ० महावीर ने ही निम्रन्थ परंपरा में पहले पहल दाखिल किया या पूर्ववर्ती पापित्यिक-परंपरा में भी था, जिसको कि महावीर ने क्रमशः स्वीकार किया । आचारांग, उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन ग्रन्थों में भ. महावीर की कुछ ऐसी विशेषताएँ बतलाई हैं जो पूर्ववर्ती पापित्यिक परंपरा में न थीं, उनको भ० महावीर ने ही शुरू किया । भ० महावीर की जीवनी में तो इतना ही कहा गया है कि वे स्वीकृत वस्त्र का त्याग करके सर्वथा अचेल बने । पर उत्तराध्ययन सूत्र में केशि-गौतम-संवाद में पावापत्यिकपरंपरा के प्रतिनिधि केशी के द्वारा महावीर के मुख्य शिष्य गौतम के सम्मुख यह प्रश्न उपस्थित कराया गया है कि भ. महावीर ने तो अचेलक धर्म कहा है और पार्श्वनाथ ने सचेल धर्म कहा है । जब कि दोनों का उद्देश्य एक ही है तब दोनों जिनों के उपदेश में अन्तर क्यों ? इस प्रश्न से स्पष्ट है कि प्रश्नकर्ता केशी और उत्तरदाता गौतम दोनों इस बात में एकमत थे कि निग्रन्थपरंपरा में अचेल धर्म भ० महावीर ने ही चलाया। जब ऐसा है तब इतिहास भी यही कहता है कि भ० महावीर के पहले ऐतिहासिक युग में निर्ग्रन्थ-परंपरा का केवल सचेल स्वरूप था।
भ० महावीर ने अचेलता दाखिल की तो उनके बाह्य आध्यात्मिक व्यक्तित्व से आकृष्ट होकर अनेक पाश्र्वापत्यिक और नए निम्रन्थ अचेलक भी बने। तो भी पाश्र्वापत्यिक-परंपरा में एक वर्ग ऐसा भी था जो महावीर के शासन में आना तो चाहता था पर उसे सर्वथा अचेलत्व अपनी शक्ति के बाहर जंचता था । उस वर्ग की शक्ति, अशक्ति और प्रामाणिकता का विचार करके भ० महावीर ने अचेलत्व का आदर्श रखते हुए भी सचेलत्व का मर्यादित विधान किया और अपने संघ को पापित्यिक परंपरा के साथ जोड़ने का रास्ता खोल दिया । इसी मर्यादा में भगवान् ने तीन से दो और दो से एक वस्त्र रखने को भी कहा है ।२ एक वस्त्र रखनेवाले के लिए अाचारांग में एक शाटक ही
१. उत्त०२३ १३. २. देखो पृ० ८८. टि. ४. ३. आचारांग ७.४.२०६
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