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जैन धर्म और दर्शन
रेवती, सुलसा और जयन्ती के नाम प्रख्यात हैं। जयन्ती जैसी भक्त थी वैसी ही विदुषी भी थी । आज़ादी के साथ भगवान् से प्रश्न करती और उत्तर सुनती थी। भगवान् ने उस समय स्त्रियों की योग्यता किस प्रकार की, उसका यह उदाहरण है । महावीर के समकालीन धर्म-प्रवर्तकों में आजकल कुछ थोड़े ही लोगों के नाम मिलते हैं - तथागत गौतमबुद्ध, पूर्ण कश्यप, संजय वेसद्विपुत्त, पकुध कच्चायन, श्रजित केसकम्बलि और मंखली गोशालक | समझौता -
श्रमण भगवान् के पूर्व से ही जैन सम्प्रदाय चला आ रहा था, जो निर्मन्थ के नाम से विशेष प्रसिद्ध था उस समय प्रधान निर्ग्रन्थ केशीकुमार आदि थे । वे सब अपने को श्री पार्श्वनाथ की परम्परा के अनुयायी मानते थे । वे कपड़े पहिनते थे और सो भी तरह-तरह के रंग के । इस प्रकार वह चातुर्याम धर्म अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन चार महाव्रतों का पालन करते थे । श्रमण भगवान् ने इस परम्परा के खिलाफ अपने व्यवहार से दो बातें नई प्रचलित कीं - एक अचेल धर्म, दूसरी ब्रह्मचर्यं ( स्त्री - विरमण ) । पहिले की परम्परा में वस्त्र और स्त्री के संबन्ध में अवश्य शिथिलता आ गई होगी और उसे दूर करने के लिये अचेल धर्म और स्त्री-विरमण को निर्ग्रन्थत्व में स्थान दिया गया । परिग्रह व्रत से स्त्री- विरमण को अलग करके चार के बदले पाँच महाव्रतों के पालन करने का नियम बनाया। श्री पार्श्वनाथ की परम्परा के सुयोग्य नेताओं ने इस संशोधन को स्वीकृत किया और प्राचीन तथा नवीन दोनों भिक्षुओं का सम्मे
समझौते में वस्त्र रखने
न हुआ । कितने ही विद्वानों का यह मत है कि इस तथा न रखने का जो मतभेद शान्त हुआ था वह आगे रूप धारण करके श्वेताम्बर, दिगम्बर सम्प्रदाय के रूप में सूक्ष्म दृष्टि से देखने वाले विद्वानों को श्वेताम्बर, दिगम्बर में कोई महत्त्वपूर्ण भेद नहीं जान पड़ता ; परन्तु आजकल तो सम्प्रदाय-भेद की अस्मिता ने दोनों शाखाओं में नाशकारिणी अग्नि उत्पन्न कर दी है। इतना ही नहीं बल्कि थोड़ेथोड़े प्रभिनिवेश के कारण आज दूसरे भी अनेक छोटे-बड़े भेद भगवान् के अनेकान्तवाद (स्याद्वाद) के नीचे खड़े हो गए हैं ।
उपदेश का रहस्य ---
श्रमण भगवान् के समग्र जीवन और उपदेश का संक्षित रहस्य दो बातों में जाता है। चार में पूर्ण अहिंसा और तत्वज्ञान में अनेकान्त | उनके संप्रदाय के चार को और शास्त्र के विचार को इन तत्वों का ही भाग्य सम झिए । वर्त्तमानकाल के विद्वानों का यही निष्पक्ष मत है ।
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चलकर फिर पक्षपात का धधक उठा । यद्यपि
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