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वादावचार प्रश्नोत्तर रूप से और खण्डन-मण्डन रूप से पर्चा दो प्रकार की है । खण्डन-मण्डन रूप चर्चा-अर्थ में सम्भाषा, कथा, वाद, श्रादि शब्दों का प्रयोग देखा जाता है। सम्भाषा शब्द चरक आदि वैद्यकीय ग्रन्थों में प्रसिद्ध है, जब कि कथा शब्द न्याय परम्परा में प्रसिद्ध है । वैद्यक परम्परा में सम्माषा के सन्धायसम्भाषा और विगृह्यसम्भाषा ऐसे दो भेद किए हैं। चरकसं० पृ० २६३ ): जब कि न्याय परम्परा ने कथा के वाद, जल्प, वितण्डा ये तीन भेद किए हैं (न्यायवा० पृ० १४६)। वैद्यक परम्परा की सन्धायसम्भाषा ही न्याय परम्परा की वाद कथा है । क्योंकि वैद्यक परम्परा में सन्धायसम्भाषा के जो और जैसे अधिकारी बताए गए हैं (चरकसं० पृ० २६३ ) वे और वैसे ही अधिकारी वाद कथा के न्याय परम्परा ( न्यायसू० ४. २. ४८) में माने गए हैं। सन्धायसम्भाषा और वाद कथा का प्रयोजन भी दोनों परम्पराओं में एक ही तत्त्वनिर्णय है । वैद्यक परम्परा जिस चर्चा को विगृह्यसम्भाषा कहती है उसी को न्याय परम्परा जल्प और वितण्ड कथा कहती है। चरक ने विगृह्यसम्भाषा ऐसा सामान्य नाम रखकर फिर उसी के जल्प और वितण्डा ये दो भेद बताए हैं(पृ० २६५)। न्याय परम्परा में इन दो भेदों के वास्ते 'विगृह्यसम्भाषा' शब्द प्रसिद्ध नहीं है, पर उसमें उक्त दोनों मेद विजिगीषुकथा शब्द से व्यवहत होते हैं (न्यायवा• पृ० १४६ )। अतएव वैद्यक परम्परा का 'विगृह्य सम्भाषा' और न्याय परम्परा का 'विजिगीषुकथा' ये दो शब्द बिलकुल समानार्थक है। न्याय परम्परा में यद्यपि विगृह्यसम्भाषा इस शब्द का खास व्यवहार नहीं है, तथापि उसका प्रतिबिम्बप्राय 'विगृह्यकथन' शब्द मूल न्यायसूत्र (४. २. ५१ ) में ही प्रयुक्त है। इस शाब्दिक और आर्थिक संक्षिप्त तुलना से इस बात में कोई सन्देह नहीं रहता कि मूल में न्याय और वैद्यक दोनों परम्पराएँ एक ही विचार के दो भिन्न प्रवाह मात्र हैं। बौद्ध परम्परा में खास तौर से कथा अर्थ में वाद शब्द के प्रयोग की प्रधानता रही है । कथा के वाद, जल्प आदि अवान्तर भेदों के वास्ते उस परम्परा में प्रायः सद्-धर्मवाद, विवाद आदि शब्द प्रयुक्त किये गए हैं। जैन परम्परा में कथा अर्थ में क्वचित् ' जल्प शब्द का प्रयोग है पर सामान्य
१ किं तत् जल्पं विदुः १ इत्याह-समर्थवचनम्' ।-सिद्धिवि० टी० पृ० २५४ BI
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