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पक्षविचार
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पक्ष के संबन्ध में यहाँ चार बातों पर विचार है - १ -पक्ष का लक्षण - स्वरूप, २ --- लक्षणान्तर्गत विशेषण की व्यावृत्ति, ३ – पक्ष के आकार निर्देश, ४ – उसके प्रकार ।
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१ - बहुत पहिले से ही पक्ष का स्वरूप विचारपथ में श्राकर निश्चित सा हो गया था फिर भी प्रशस्तपाद ने प्रतिज्ञालक्षण करते समय उसका चित्रण स्पष्ट कर दिया है ' । न्यायप्रवेश में और न्यायबिन्दु में 3 तो यहाँ तक लक्षण की भाषा निश्चित हो गई है कि इसके बाद के सभी दिगम्बर श्वेताम्बर तार्किकों ने उसी बौद्ध भाषा का उन्हीं शब्दों से या पर्यायान्तर से अनुवाद करके ही अपनेअपने ग्रन्थों में पक्ष का स्वरूप बतलाया है जिसमें कोई न्यूनाधिकता नहीं है ।
२ - लक्षण के इष्ट, प्रसिद्ध, और अबाधित इन तीनों विशेषणों की व्यावृत्ति प्रशस्तपाद और न्यायप्रवेश में नहीं देखी जाती किन्तु बाधित इस एक विशेषण की व्यावृत्ति उनमें स्पष्ट है ४ । न्यायचिन्दु में उक्त तीनों की व्यावृत्ति" है ।
१ 'प्रतिपिपादयिषितधर्मविशिष्टस्य धर्मिणोऽपदेशविषयमापादयितुं उद्देश मात्रं प्रतिज्ञा विरोधिग्रहणात् प्रत्यक्षानुमानाभ्युपगतस्वशास्त्रस्ववचन विरोधिनो
निरस्ता भवन्ति' - प्रशस्त० पृ० २३४ ।
२ ' तत्र पक्षः प्रसिद्धो धर्मी प्रसिद्धविशेषेण विशिष्टतया स्वयं साध्यत्वेने - प्सितः । प्रत्यक्षाद्यविरुद्ध इति वाक्यशेषः । तद्यथा नित्यः शब्दोऽनित्यो वेति ।'न्यायप्र० पृ० १ ।
३ ' स्वरूपेणैव स्वयमिष्टोऽनिराकृतः पक्ष इति । - न्यायवि० १. ४० । ४ ' यथाऽनुष्णोऽग्निरिति प्रत्यक्ष विरोधी, धनमम्बरमिति अनुमानविरोधी, ब्राह्मणेन सुरा पेयेत्यागमविरोधी, वैशेषिकस्य सत्कार्यमिति ब्रुवतः स्वशास्त्र विरोधी, न शब्दोऽर्थप्रत्यायक इति स्ववचनविरोधी ।' - प्रशस्त० पृ० २३४ । 'साधयितुमिष्टोपि प्रत्यक्षादिविरुद्धः पक्षाभासः । तद्यथा - प्रत्यक्ष विरुद्धः श्रनुमानविरुद्धः, श्रागमविरुद्धः, लोकविरुद्धः स्ववचनविरुद्धः, अप्रसिद्धविशेषणः श्रप्रसिद्ध विशेष्यः, अप्रसिद्धोभयः, प्रसिद्धसम्बन्धश्चेति । न्यायप्र० पृ० २ ।
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५ 'स्वरूपेणेति साध्यत्वेनेष्टः । स्वरूपेणैवेति साध्यत्वेनेष्टो न साघनत्वेनापि । यथा शब्दस्यानित्यत्वे साध्ये चाक्षुषत्वं हेतुः शब्देऽसिद्धत्वात्साध्यम्, न पुनस्तदिह
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