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प्रमाणफल चर्चा
दार्शनिकक्षेत्रमें प्रमाण और उसके फलकी चर्चा भी एक खास स्थान रखती है। यों तो यह विषय तर्कयुगके पहिले श्रुति-श्रागम युगमें भी विचारप्रदेशमें श्राया है। उपनिषदों, पिटकों और आगमोंमें ज्ञान-सम्यम्ज्ञान-के फलका कथन है। उक्त युगमें वैदिक, बौद्ध, जैन सभी परम्परामें ज्ञानका फल अविद्या. नाश या वस्तुविषयक अधिगम कहा है पर वह आध्यात्मिक दृष्टिसे—अर्थात् मोक्ष लाभकी दृष्टिसे । उस अध्यात्म युगमै ज्ञान इसीलिए उपादेय समझा जाता था कि उसके द्वारा अविद्या-अज्ञान-का नाश होकर एवं वस्तुका वास्तविक बोध होकर अन्तमें मोक्ष प्राप्त हो', पर तर्कयुगमें यह चर्चा व्यावहारिक दृष्टिसे भी होने लगी, अतएव हम तर्कयुगमें होनेवाली-प्रमाणफलविषयक चर्चाम अध्यात्मयुगीन अलौकिक दृष्टि और तर्कयुगीन लौकिक दृष्टि दोनों पाते हैं । लौकिक दृष्टिमें केवल इसी भावको सामने रखकर प्रमाणके फलका विचार किया जाता है कि प्रमाणके द्वारा व्यवहारमैं साक्षात् क्या सिद्ध होता है, और परम्परासे क्या, चाहे अन्तम मोक्षलाभ होता हो या नहीं। क्योंकि लौकिक दृष्टिमें मोक्षानधिकारी पुरुषगत प्रमाणोंके फलकी चर्चाका भी समावेश होता है।
तीनों परम्पराकी तर्कयुगीन प्रमाणफलविषयक चर्चामें मुख्यतया विचारणीय अंश दो देखे जाते हैं-एक तो फल और प्रमाणका पारस्परिक भेद-अभेद
और दूसरा फलका स्वरूप । न्याय, वैशेषिक, मीमांसक श्रादि वैदिक दर्शन फलको प्रमाणसे भिन्न ही मानते हैं । बौद्ध दर्शन उसे अभिन्न कहता है जब
१ 'सोऽविद्याग्रन्थि विफरतीह सौम्य'-मुण्डको० २.१.१०। सांख्यका. ६७-६८ । उत्त० २८.२, ३। 'तमेत बुच्चति-यदा च प्रात्वा सो धम्म सञ्चानि अभिसमेस्सति । तदा विपसमा उपसन्तो चरिस्सति ।।'-विसुद्धि पृ० ५४।।
२'...तत्त्वशानानिःश्रेयसम्'-वै० सू० १. १. ३। '...तत्वज्ञानान्नि:श्रेयसाधिगमः'-न्यायसू० १. १. १ ! 'यदा सन्निकर्षस्तदा ज्ञान प्रमितिः, यदा ज्ञानं तदा हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः फलम्'-न्यायभा० १. १. ३ ।
३ श्लोकवा. प्रत्यक्ष श्लो०७४, ७५ । ४ प्रमाणसमु. १.६। न्यायबि० टी० १.२१ ।
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