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द्रव्य गुण - पर्याय
प्राकृत-पालि दव्व-दब्ब शब्द और संस्कृत द्रव्य शब्द बहुत प्राचीन है । लोकव्यवहार में तथा काव्य, व्याकरण, आयुर्वेद, दर्शन आदि नाना शास्त्रों में भिन्न-भिन्न अर्थों में उसका प्रयोग भी बहुत प्राचीन एवं रूद जान पड़ता है । उसके प्रयोग प्रचारकी व्यापकताको देखकर पाणिनिने अपनी अष्टाध्यायी में उसे स्थान देकर दो प्रकार से उसकी व्युत्पत्ति बतलाई है जिसका अनुकरण पिछले सभी arrestria कया है । तद्धित प्रकरण में द्रव्य शब्दके साधक खास जो दो सूत्र ( ५. ३. १०४; ४.३ १६१ ) बनाये गए हैं उनके अलावा द्रव्य शब्द सिद्धिका एक तीसरा भी प्रकार कृत् प्रकरण में है । तद्धितके अनुसार पहली व्युत्पत्ति यह है कि द्रु= वृक्ष या काष्ठ + य = विकार या अवयव अर्थात् वृक्ष या काठका विकार तथा अवयव द्रव्य । दूसरी व्युत्पत्ति यों है - द्रु = काष्ठ + य तुल्य अर्थात् जैसे सीधी और साफ सुथरी लकड़ी बनानेपर इष्ट आकार धारण कर सकती है वैसे ही जो राजपुत्र आदि शिक्षा दिये जानेपर राज योग्य गुण धारण करनेका पात्र है वह भावी गुणोंकी योग्यता के कारण द्रव्य कहलाता है । इसी प्रकार अनेक उपकारोंकी योग्यता रखनेके कारण धन भी द्रव्य कहा जाता है । कृदन्त प्रकरण के अनुसार गति प्राप्ति श्रर्थवाले द्रु धातु से कर्मार्थक य प्रत्यय श्राने पर भी द्रव्य शब्द निष्पन्न होता है जिसका अर्थ होता है प्राप्तियोग्य अर्थात् जिसे अनेक अवस्थाएँ प्राप्त होती है । वहाँ व्याकरणके नियमानुसार उक्त तीन प्रकारकी व्युत्पत्ति में लोक -: - शास्त्र प्रसिद्ध द्रव्य शब्द के सभी अर्थीका किसी न किसी प्रकार से समावेश हो ही जाता है ।
यद्यपि जैन साहित्य में भी क़रीब करीब उन्हीं सभी अथों में प्रयुक्त द्रव्य शब्द देखा जाता है तथापि द्रव्य शब्दकी जैन प्रयोग परिपाटी अनेक अंशोंमें अन्य सब शास्त्रोंसे भिन्न भी है । नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव आदि निक्षेप ( तत्त्वार्थ • १. ५ ) प्रसङ्गमें; द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव श्रादि प्रसङ्ग में ( भग० श० २. उ० १ ); द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकरूप नयके प्रसङ्ग में ( तस्वार्थभा० २. ३१ ); द्रव्याचार्य (पञ्चाशक ६ ), भावाचार्य आदि प्रसङ्ग में द्रव्यकर्म, भावकर्म आदि प्रसङ्गमें प्रयुक्त होनेवाला द्रव्य शब्द जैन परिभाषाके अनुसार ख़ास ख़ास अर्थका बोधक है जो अर्थ तद्धित प्रकरणसाधित भव्य-योग अर्थवाले द्रव्य
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