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ज्ञानको स्व-पर प्रकाशकता
दार्शनिक क्षेत्रमें ज्ञान स्वप्रकाश है, पर प्रकाश है या स्व-परप्रकाश है, इन प्रश्नोंकी बहुत लम्बी और विविध कल्पनापूर्ण चर्चा है । इस विषय में किसका क्या पक्ष है इसका वर्णन करनेके पहिले कुछ सामान्य बातें जान लेनी जरूरी हैं जिससे स्वप्रकाशव-परप्रकाशवका भाव ठीक-ठीक समझा जा सके।
१- ज्ञानका स्वभाव प्रत्यक्ष योग्य है। ऐसा सिद्धान्त कुछ लोग मानते हैं जबकी दूसरे कोई इससे बिलकुल विपरीत मानते हैं। वे कहते हैं कि ज्ञानका स्वभाव परोक्ष ही है प्रत्यक्ष नहीं । इस प्रकार प्रत्यक्ष परोक्षरूपसे ज्ञानके स्वभावभेदकी कल्पना ही स्वप्रकाशत्वकी चचीका मूलाधार है।
२–स्वप्रकाश शब्दका अर्थ है स्वप्रत्यक्ष अर्थात् अपने आप ही ज्ञानका प्रत्यक्षरूपसे भासित होना । परन्तु परप्रकाश शब्दके दो अर्थ हैं जिनमें से पहिला तो परप्रत्यक्ष अर्थात् एक ज्ञानका अन्य ज्ञानव्यक्तिमें प्रत्यक्षरूपसे भासित होना, दूसरा अर्थ है परानुमेय अर्थात् एक ज्ञानका अन्य ज्ञानमें अनुमेयरूपतया भासित होना ।
३-स्वप्रत्यक्षका यह अर्थ नहीं कि कोई ज्ञान स्वप्रत्यक्ष है अतएव उसका अनुमान आदि द्वारा बोध होता ही नहीं पर उसका अर्थ इतना ही है कि जब कोई ज्ञान व्यक्ति पैदा हुई तब वह स्वाधार प्रमाताको प्रत्यक्ष होती ही है अन्य प्रमाताओंके लिए उसकी परोक्षता ही है तथा स्वाधार प्रमाताके लिए भी वह ज्ञान व्यक्ति यदि वर्तमान नहीं तो परोक्ष ही है। परप्रकाश के परप्रत्यक्ष अर्थके पक्षमें भी यही बात लागू है-अर्थात् वर्तमान ज्ञान व्यक्ति ही स्वाधार प्रमाताके लिये प्रत्यक्ष है, अन्यथा नहीं ।
१. 'यत्त्वनुभूतेः स्वयंप्रकाशत्बमुक्तं तद्विषयप्रकाशनवेलायां ज्ञातुरात्मनस्तथैव न तु सर्वेर्षा सर्वदा तथैवेति नियमोऽस्ति, परानुभवस्य हानोपादानादिलिङ्गकानुमानज्ञानविषयत्वात् स्वानुभवस्याप्यतीतस्याशासिषमिति ज्ञानविषयत्वदर्शनाच्च ।'
–श्रीभाष्य पृ. २४ ।
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