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के इतिहासको हम देखते है, तो उसमे स्पष्ट दिखाई देता है, कि जब कोई असाधारण और नवीन विचारका प्रस्थापक पैदा होता है तब वह अपने नवीन विचारोंका मूल या बीज अपने संप्रदायके प्राचीन एवं प्रतिष्ठित श्राचार्योंके वाक्योंमें ही बतलाता है। वह अपनेको अमुक संप्रदायका अनुयायी माननेमनवाने के लिए उसकी परम्पराके प्राचीन एवं प्रतिष्ठित प्राचार्यों के साथ अपना अविच्छिन्न अनुसंधान अवश्य बतलाता है। चाहे फिर उसका वह नया विचार उस संप्रदायके पूर्ववर्ती श्राचार्यों के मस्तिष्कमें कभी पाया भी न हो।' जयराशिने भी यही किया है। उसने अपने निजी विचार-विकासको बृहस्पतिके अभिप्रायमें से ही फलित किया है। यह वस्तुस्थिति इतना बतलानेके लिए पर्याप्त है कि जयराशि अपने को बृहस्पतिकी संप्रदायका मानने-मनवानेका पक्षपाती है।
अपनेको बृहस्पतिकी परम्पराका मान कर और मनवा कर भी वह अपनेको बृहस्पतिसे भी ऊँची बुद्धिभूमिका पर पहुँचा हुश्रा मानता है । अपने इस मन्तव्यको वह स्पष्ट शब्दोंमें, ग्रन्थके अन्तकी प्रशस्तिके एक पद्यमें, व्यक्त करता है । वह बहुत ही जोरदार शब्दों में कहता है कि सुरगुरु-बृहस्पतिको भी जो नहीं सूझे ऐसे समर्थ विकल्प --विचारणीय प्रश्न मेरे इस ग्रन्थमें ग्रथित हैं । ___जयराशि बृहस्पतिकी चार्वाक मान्यताका अनुगामी था इसमें तो कोई सन्देह नहीं, पर यहाँ प्रश्न यह है कि जयराशि बुद्धिसे ही उस परम्पराका अनुगामी था कि प्राचारसे भी ? इसका जबाब हमें सीधे तौरसे किसी तरह नहीं मिलता । पर तत्त्वोपप्लवके यान्तरिक परिशीलनसे तथा चार्वाक परपराकी थोड़ी बहुत पाई जानेवाली ऐतिहासिक जानकारीसे, ऐसा जान पड़ता है कि जयराशि बुद्धिसे ही चार्वाक परम्पराका अनुगामी होना चाहिए । साहित्यिक
१, उदाहरणार्थ श्राचार्य शङ्कर, रामानुज, मध्य और वल्लभादिको लीजिए-- जो सभी परस्पर अत्यन्त विरुद्ध ऐसे अपने मन्तव्यों को गीता, ब्रह्मसूत्र जैसी एक ही कृतिमेसे फलित करते हैं; तथा सौत्रान्तिक, विज्ञानवादी और शून्यवादी बौद्धाचार्य परस्पर बिलकुल भिन्न ऐसे अपने विचारोंका उद्गम एक ही तथागतके उपदेशमेसे बतलाते हैं। २. "ये याता नहि गोचरं सुरगुरोः बुद्धविकल्पा हटाः। प्राप्यन्ते ननु तेऽपि यत्र विमले पाखण्डदच्छिदि ।'
- तत्त्वो० पृ० १२५, पं० १३
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