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तीर्थकोंका सूचन है। चाणक्यके अर्थशास्त्र में लोकायतिक मतका निर्देश उसी भूतवादी दर्शनका बोधक है। इस तरह 'नास्तिक' 'भूतवादी' 'लोकायतिक' 'अक्रियवादी' आदि जैसे शब्द इस संप्रदायके अर्थमें मिलते हैं। पर उस प्राचीन कालके साहित्यमें 'चाक' शब्दका पता नहीं चलता। चार्वाक मतका पुरस्कर्ता कौन था इसका भी पता उस युगके साहित्यमें नहीं मिलता। उसके पुरस्कर्ता रूपसे बृहस्पति, देवगुरु आदिका जो मन्तव्य प्रचलित है यह संभवतः पौराणिकोंकी कल्पनाका ही फल है। पुराणोंमें चार्वाक मतके प्रवर्तकका जो वर्णन है वह कितना साधार है यह कहना कठिन है। फिर भी पुराणोका वह वर्णन, अपनी मनोरञ्जकता तथा पुराणों की लोकप्रियताके कारण, जनसाधारणमें और विद्वानोंमें भी रूढ हो गया है; और सब कोई निर्विवाद रूपसे यही कहते और मानते श्राए हैं कि बृहस्पति ही चार्वाक मतका पुरस्कर्ता है । जहाँ कहीं चार्वाक मतके निदर्शक वाक्य या सूत्र मिलते हैं वहाँ वे वृहस्पति, सुरगुरु आदि नामके साथ ही उद्धृत किये हुए पाए जाते हैं। () भारतीय दर्शनोंको हम संक्षेपमें चार विभागोंमें बाँट सकते हैं।
१. इन्द्रियाधिपत्य पक्ष २. अनिन्द्रियाधिपत्य पक्ष ३. उभयाधिपत्य पक्ष
४. श्रागमाधिपत्य पक्ष १. जिस पक्षका मन्तव्य यह है कि प्रमाण की सारी शक्ति इन्द्रियोंके ऊपर ही अवलम्बित है । मन खुद इन्द्रियोंका अनुगमन कर सकता है पर वह इन्द्रियोंकी मदद के सिवाय कहीं भी अर्थात् जहाँ इन्द्रियोंकी पहुँच न हो वहाँप्रवृत्त होकर सच्चा ज्ञान पैदा कर ही नहीं सकता, सच्चे ज्ञानका अगर सम्भव है तो वह इन्द्रियोंके द्वारा ही—यह है इन्द्रियाधिपत्य पक्ष । इस पक्षमें चार्वाक दर्शन ही समाविष्ट है । इसका तात्पर्य यह नहीं कि चार्वाक अनुमान या
१. देखो, दीघनिकाय, ब्रह्मजालसुत्त, पृ० १२; तथा सामञ्जफलमुत्त पृ० २०-२१ ।
२. विष्णुपुराण, तृतीयअंश, अध्याय-१७ । कथाके लिए देखो सर्व दर्शनसंग्रहका पं० श्रभ्यंकरशास्त्री लिखिन उपोद्घात, पृ० १३२ ।
३. तत्त्वोपप्लव, पृ० ४५ ।
४. तत्वोपप्लवमें बृहस्पतिको सुरुगुरु भी कहा है-पृ० १२५ । खण्डनखण्डखाद्यमें भगवान् सुरगुरुको लोकापतिक सूत्रका कर्ता कहा गया है-पृ.७ ।
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