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उपयोग सम्मतितर्क की टीकामें भी हुआ है । हमने वे दोनों ग्रन्थ किसी तरह उस भण्डारके व्यवस्थापकों से प्राप्त किए । उनमेंसे एक तो था बौद्ध विद्वान् धर्मकीर्ति हेतुबिन्दुशास्त्रका अर्चटकृत विवरण और दूसरा ग्रन्थ था प्रस्तुत तोपल्पवसिंह | अपनी विशिष्टता तथा पिछले साहित्य पर पड़े हुए इनके प्रभावके कारण, उक्त दोनों ग्रन्थ महत्वपूर्ण तो थे ही, पर उनकी लिखित प्रति अन्यत्र कहीं भी ज्ञात न होनेके कारण वे ग्रन्थ और भी अधिक विशिष्ट महत्ववाले हमें मालूम हुए ।
उक्त दोनों ग्रन्थोंकी ताडपत्रीय प्रतियाँ यद्यपि यत्र-तत्र खण्डित और कहीं कहीं घिसे हुए अक्षरों वाली हैं, फिर भी ये शुद्ध और प्राचीन रही । तस्वोपल्पव की इस प्रतिका लेखन - समय वि० सं० १३४६ मार्गशीर्ष कृष्ण ११ शनिवार है । यह प्रति गुजरात के घोल का नगर में, महं० नरपालके द्वारा लिखवाई गई है । घोलका, गुजरात में उस समय पाटणके बाद दूसरी राजधानीका स्थान था, जिसमें अनेक ग्रन्थ भण्डार बने थे और सुरक्षित थे । धोलका वह स्थान है जहाँ रह कर प्रसिद्ध मन्त्री वस्तुपालने सारे गुजरातका शासन तंत्र चलाया । था । सम्भव है कि इस प्रतिका लिखानेवाला महं० नरपाल शायद मंत्री वस्तुपालका ही कोई वंशज हो । अस्तु, जो कुछ हो, तत्त्वोपप्लवकी इस उपलब्ध ताडपत्रीय प्रतिको अनेक बार पढ़ने, इसके घिसे हुए तथा लुप्त अक्षरोंको पूरा करने आदिका श्रमसाध्य कार्य अनेक सहृदय विद्वानों की मदद से चालू रहा, जिनमें भारतीय विद्या के सम्पादक मुनिश्री जिनविजयी, प्रो० रसिकलाल परीख तथा पं० दलसुख मालवणिया मुख्य हैं ।
इस तापत्रकी प्रतिके प्रथम वाचनसे ले कर इस ग्रन्थके छप जाने तक में जो कुछ अध्ययन और चिन्तन इस सम्बन्ध में हुआ है उसका सार 'भारतीय विद्या' के पाठकोंके लिए प्रस्तुत लेखके द्वारा उपस्थित किया जाता है । इस लेखका वर्तमान स्वरूप पं० दलसुख मालवणिया के सौहार्दपूर्ण सहयोगका फल है।
प्रन्थकार
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प्रस्तुत ग्रन्थके रचयिताका नाम, जैसा कि ग्रन्थके अन्तिम प्रशस्तिपद्य में
१. गायकवाड़ सिरीज में यह भी प्रकाशित हो गया है । २. भट्ट श्रीजयराशिदेवगुरुभिः सृष्टो महार्थोदयः ।
तवोपल्पवसिंह एष इति यः ख्यातिं परां यास्यति ॥ तत्त्वो०, पृ० १२५ " तस्वोपप्लवकरणाद जयराशिः सौगतमतमवलम्ब्य ब्रूयात् " - सिद्धिवि० टी०, पृ० २८८
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