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नहीं । इससे इस संस्कृतिकी ओर पहले ही से साधारण जनताका झुकाव अधिकाधिक रहा है। अनुगामिनी जनता जितनो विशाल होती गई उतनी ही इस संस्कृतिके अवांतर नाना विध बाड़े बनते गए। कोई तपपर तो कोई ध्यानपर जोर देता है। कोई भक्तिपर तो कोई प्रत्यक्ष सेवाको विशेषता देता है, कोई नग्नत्वपर तो कोई कोपिनपर विशेष भार देता है । कोई मैले-कुचैले वस्त्रपर जोर देता है । कोई श्मशानवास तो कोई गुहावासकी बड़ाई करता है। जुदे जुदे बाह्य मार्गोंपर भार देनेवाले सन्त-साधुअोंका सामान्य धोरण यह रहा है कि सब अपने अपने पन्थके श्राचारोंका तथा अपने सात्त्विक विचारोंका प्रचार करनेके लिए अपने एक संघकी आवश्यकता महसूस करते रहे | धर्म-पुरुषोंकी चिन्ताका विषय यह रहा है कि हमारा पन्थ या हमारा धर्म-मार्ग अधिक फैले, विशेष लोकग्राह्य बने और अच्छे-अच्छे श्रादमी उसमें सम्मिलित हों। दूसरी ओरसे ऐसे अनेक आध्यात्मिक जिज्ञासु भी साधारण जनतामें निकलते आते रहे हैं जो सच्चे गुरुकी तलाश में धर्म-पुरुषोंके समीप जाते और उनमेंसे किसी एकको गुरु रूपसे स्वीकार करते थे । गुरुओंकी आध्यात्मिकताके योग्य उम्मेदवारोंकी खोज
और सच्चे उम्मेदवारोंकी सच्चे गुरुओंकी खोज इन पारस्परिक सापेक्ष भावनाओंसे गुरु-शिष्योंके संघकी संस्थाका जन्म हुआ है। ऐसे संघोंकी संस्था बहुत पुरानी है । बुद्ध और महावीरके पहले भी ऐसे अनेक संघ मौजूद थे और परस्पर प्रतिस्पर्धासे तथा धार्मिक भावके उद्रेकसे वे अपना-अपना आचार-विचार फैलाते रहे हैं। इन सन्त संघों या श्रमण-संघोंके सारे प्राचार-विचारका, जीवनका, उसके पोषण व संवर्धनका तथा उसकी प्रतिष्ठाका एकमात्र अाधार योग्य शिष्य का संपादन ही रहा है क्योंकि ऐसे सन्त गृहस्थ न होनेसे सन्ततिवाले तो संभव ही न थे, और उन्हें अपना जीवन कार्य चलाना तो था ही इसलिये उनको अनिवार्य रूपसे योग्य शिष्योंकी जरूरत होती थी। उस समय भारत की स्थिति भी ऐसी थी कि धर्म मार्गकी या आध्यात्मिक-मार्गकी पुष्टि के लिये आवश्यक सभी साधन सुलभ थे और धर्म-संघमें या गुरु-संघमें कितने ही क्यों न सम्मिलित हों पर सबका सम्मानपूर्वक निर्वाह भी सुसम्भव था। धर्म-संघमें ऐसे गम्भीर आध्यात्मिक पुरुष भी हो जाते थे कि जिनकी छायामें अनेक साधारण संस्कारवाले उम्मेदवारोंकी भी मनोवृत्ति किसी न किसी प्रकारसे विकसित हो जाती थी। क्योंकि एक तो उस समयका जीवन बहुत सादा था ; दूसरे, अधिकतर निवास ग्राम व नगरोंके आकर्षणसे दूर था और तीसरे एकाध सच्चे तपस्वी श्राध्यात्मिक पुरुषका जीवनप्रद साहचर्य भी था। इस वातावरणमें बड़े-बड़े त्यागी संघ जमे थे । यही कारण है कि हम महावीर, बुद्ध, गौशालक, सोख्य .
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