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गृहस्थाश्रम केंद्रित और संन्यासाश्रम केंद्रित दोनों संस्थाओं के पारस्परिक संघर्ष तथा आचार-विचारके श्रादान-प्रदानमेंसे यह चतुराश्रम संस्थाका विचार व चार स्थिर हुआ है। पर, मूल में ऐसा न था ।
जो गृहस्थाश्रम केंद्रित संस्थाको जीवनका प्रधान अङ्ग समझते थे वे संन्यासका विरोध ही नहीं, अनादरतक करते थे । इस विषय में गोभिल गृह्यसूत्र देखना चाहिये तथा शंकर -दिग्विजय । इम इस संस्थाके समर्थनका इतिहास शतपथ ब्राह्मण, महाभारत तथा पूर्वपक्ष रूपसे न्यायभाष्यतकमें पाते हैं । दूसरी ओरसे संन्यास - केन्द्रित संस्थाके पक्षपाती संन्यासपर इतना अधिक भार देते थे कि मानों समाजका जीवन - सर्वस्व ही वह हो । ब्राह्मण लोग वेद और वेदाश्रित कर्मकांडोंके श्राश्रयसे जीवन व्यतीत करते रहे, जो गृहस्थोंके द्वारा गृहस्थाश्रम में ही सम्भव है | इसलिये वे गृहस्थाश्रमकी प्रधानता, गुणवत्ता तथा सर्वोपयोगितापर भार देते आए । जिनके वास्ते वेदाश्रित कर्मकाण्डोंका जीवनपथ सीधे तौर से खुला न था और जो विद्या-रुचि तथा धर्म - रुचि वाले भी थे, उन्होंने धर्मजीवन के अन्य द्वार खोले जिनमें से क्रमशः आरण्यक धर्म, तापखधर्म, या टैगोर की भाषा में 'तपोवन' की संस्कृतिका विकास हुआ है, जो सन्त संस्कृतिका मूल है। ऐसे भी वैदिक ब्राह्मण होते गए जो सन्त संस्कृतिके मुख्य स्तम्भ भी माने जाते हैं । दूसरी तरफसे वेद तथा वेदाश्रित कर्मकांडों में सीधा भाग ले सकनेका अधिकार न रखनेवाले अनेक ऐसे ब्राह्मणेतर भी हुए हैं जिन्होंने गृहस्थाश्रम केन्द्रित धर्म - संस्थाको ही प्रधानता दी है । पर इतना निश्चित है कि अन्तमें दोनों संस्थाओंका समन्वय चतुराश्रम रूपमें ही हुआ है। आज कट्टर कर्मकाण्डी मीमांसक ब्राह्मण भी संन्यासकी अवगणना कर नहीं सकता । इसी तरह संन्यासका अत्यन्त पक्षपाती भी गृहस्थाश्रमकी उपयोगिताको इन्कार नहीं कर सकता | लम्बे संघर्ष के बाद जो चतुराश्रम संस्थाका विचार भारतीय प्रजामें स्थिर व व्यापक हुआ है और जिसके द्वारा समग्र जीवनकी जो कर्मधर्म पक्षका या प्रवृत्ति निवृत्ति पक्षका विवेकयुक्त विचार हुआ है, उसीको अनेक विद्वान् भारतीय अध्यात्म-चिन्तनका सुपरिणाम समझते हैं । भारतीय वाङ्मय ही नहीं पर भारतीय जीवनतकमें जो चतुराश्रम संस्थानोंका विचारपूत अनुसरण होता आया है, उसके कारण भारतकी त्यागभूमि व कर्मभूमि रूपसे प्रतिष्ठा है ।
आरण्यक, तपोवन या सन्त संस्कृतिका मूल व लक्ष्य अध्यात्म है । आत्मापरमात्मा के स्वरूपका चिन्तन तथा उसे पानेके विविध मार्गों का अनुसरण ह सन्त-संस्कृतिका आधार है । इसमें भाषा, जाति, वेत्र, आदिका कोई बन्धन
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