________________
जिस देश में करोड़ों ब्राह्मण हो, जिनका एकमात्र जीधन-व्रत पढ़ना-पढ़ाना या शिक्षा देना कहा जाता है, उस देश में इतनी निरक्षरता कैसे ? जिस देशमें लाखोंकी संख्यामें भिक्षु, संन्यासी, साधु और श्रमण हों, जिनका कि एकमात्र उद्देश्य अकिंचन रहकर सब प्रकारकी मानव-सेवा करना कहा जाता है, उस देशमें समाजकी इतनी निराधारता कैसे ? ___ हमने १६४३ के बंगाल-दुर्भिक्षके समय देखा कि जहाँ एक ओर सड़कोपर अस्थि-कंकाल बिछे पड़े थे, वहाँ दूसरी ओर अनेक स्थानोंमें यज्ञ एवं प्रतिष्ठाके उत्सव देखे जाते थे, जिनमें लाखोंका व्यय घृत, हवि और दान-दक्षिणामें होता था--मानो अब मानव समाज, खान-पान, वस्त्र-निवास आदिसे पूर्ण सुखी हो और बची हुई जीवन-सामग्री इस लोकमें जरूरी न होनेसे ही परलोकके लिए खर्च की जाती हो! ___पिछले एक वर्षसे तो हम अपनी संस्कृति और धर्मका और भी सच्चा रूप देख रहे हैं। लाखों शरणार्थियोंको निस्सीम कष्ट होते हुए भी हमारी संग्रह तथा परिग्रह वृत्ति तनिक भी कम नहीं हुई है । ऐसा कोई बिरला ही व्यापारी मिलेगा, जो धर्मका ढोंग किये बिना चोर-बाजार न करता हो और जो घूसको एकमात्र संस्कृति एवं धर्मके रूप में अपनाए हुए न हो। जहाँ लगभग समूची जनता दिलसे सामाजिक नियमों और सरकारी कानूनका पालन न करती हो, वहाँ अगर संस्कृति एवं धर्म माना जाए, तो फिर कहना होगा कि ऐसी संस्कृति और ऐसा धर्म तो चोर-डाकुओंमें भी संभव है ।
हम हजारों वर्षों से देखते आ रहे हैं और इस समय तो हमने बहुत बड़े पैमानेपर देखा है कि हमारे जानते हुए ही हमारी माताएँ, बहनें और पुत्रियाँ अपहृत हुई। यह भी हम जानते हैं कि हम पुरुषोंके अबलत्वके कारण ही हमारी स्त्रियाँ विशेष अबला एवं अनाथ बनकर अपहृत हुई, जिनका रक्षण एवं स्वामित्व करनेका हमारा स्मृतिसिद्ध कर्त्तव्य माना जाता है। फिर भी हम इतने अधिक संस्कृत, इतने अधिक धार्मिक और इतने अधिक उन्नत हैं कि हमारी अपनी निर्वलताके कारण अपहृत हुई स्त्रियाँ यदि फिर हमारे समाजमें पाना चाहें, तो हममें से बहतसे उच्चताभिमानी पंडित, ब्राह्मण और उन्हींकी-सी मनोवृत्तिवाले कह देते हैं कि अब उनका स्थान हमारे यहाँ कैसे ? अगर कोई साहसिक व्यक्ति अपहृत स्त्रीको अपना लेता है, तो उस स्त्रीकी दुर्दशा या अवगणना करने में हमारी बहनें ही अधिक रस लेती हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org