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जिनवाणी
10 जनवरी 2011
5. पाँचवा रोग है टी.वी.- वर्तमान में हमारे भाई-बहिन जिस रोग से ग्रस्त हैं उससे आप और हम सभी परिचित हैं, वह है टी.वी. । टी.वी. तो वास्तव में टी.बी. की बीमारी से भी भयंकर है। जैसे ही अपने कार्य से फुर्सत मिली कि हमारी बहिनें टी.वी. से पाश्चात्त्य शैली के नाटक आदि देखने में इतनी मशगूल हो जाती हैं कि उन्हें होश ही नहीं रहता वह एक श्राविका है। उसे यह विचार ही नहीं आता कि कहीं मेरे घर में निर्ग्रन्थ संत-साध्वीजी पधार कर खाली न लौट जायें, मुझे सुपात्रदान हेतु भावना भानी चाहिए और समय पर शुद्ध भोजन बनाकर घर के सदस्यों को खिलाना है, साथ ही होटालों के सड़े-गले या दूषित पदार्थ खाने से बच्चों को बचाना है। अफसोस इस बात का है वर्तमान में मेरी बहिनें अपने आपको श्राविका तो कहती हैं, पर यदि उनसे यह प्रश्न किया जाय कि क्या वे श्राविकाचार का पालन करती है? क्या उन्हें सचित्त- अचित्त की जानकारी है तो शायद वर्तमान में 95% बहिनों से नकारात्मक उत्तर ही मिलेगा। तो लीजिए मैं सर्वप्रथम अपनी श्राविका कहलाने वाली बहिनों से यह निवेदन करना चाहूँगी कि वे अपने श्राविकाचार का पालन करती हुई शुद्ध श्रमणाचार का पालन कराने में हमारे गुरु भगवन्तों का सहयोग करें।
6. छठा रोग है फोन- सचित्त-अचित्त की जानकारी के अभाव में यदि सौभाग्य से जैन श्रमण घर में पधारें और दूसरी ओर फोन की घण्टी आ जाए तो हमारी बहिनें अथवा बन्धु पहले फोन को महत्त्व देंगे। फोन को उठाते ही अग्निकाय की विराधना के कारण क्षमाधारी श्रमण बिना बोले उस घर से पुनः लौटे जाते हैं और उस दिन घर से कुछ भी अन्न-जल ग्रहण नहीं करते।
7. सातवां रोग है सैल की घड़ी- अधिकांशतः भाई-बहिनों के हाथ में सैल की घड़ी बंधी होती है, इससे भी अग्निकाय के जीवों की विराधना होने के कारण उस भाई-बहिन के हाथ से अथवा उसका छुआ अन्न-जल संतों के लिये ग्राह्य नहीं होता है।
8. आठवां रोग है लिफ्ट की सुविधा- महानगरों में बहुमंजिले भवनों में रहने वाले लोग लिफ्ट का प्रयोग करते हैं, किन्तु जैन श्रमण पद-यात्रा करते हैं । इतनी ऊँची-ऊँची मंजिलों में सीढियों से चढ़ना और फिर खाली लौटना कब तक संभव है।
श्रावकाचार से अनभिज्ञता
आहार की बात तो दूर रही, वर्तमान में शुद्ध धोवन पानी भी नसीब नहीं होता। बर्तन पाउडर से धोए जाते हैं जो धोवन पानी के रूप में काम नहीं आता। गैस के चूल्हों, भट्टियों तथा बिजली के हीटर की कृपा से राख का तो नामो-निशान ही मिटता नज़र आ रहा है। धोवण किन-किन चीजों से बनता है, श्रावकाचार व स्वाध्याय के अभाव में इसकी जानकारी नहीं होने के कारण राख के बन्द डिब्बे बाजार से खरीदे जाते हैं। जिनमें भरी होती है श्मशान की राख । जरा सोचिये, ऐसे युग में श्रमणों का कैसे निभे शुद्ध श्रमणाचार | अनुभवियों ने टीक ही तो कहा है कि
जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन, जैसा पीवे पानी, वैसी होवे वाणी ॥
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