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Vol. XXXIX, 2016
महोपाध्याय क्षमाकल्याण जी रचित साहित्य
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जैन तीर्थावली द्वात्रिशिका नामक कृति में तीर्थों की नामोल्लेखपूर्वक स्तुति करते हुए वंदना की गई है। श्लोक संख्या 24-25 में वंदनीय चैत्य के बारे में स्पष्टता करते हुए लिखा है - शुद्ध आचार्य भगवंत के द्वारा प्रतिष्ठित हो, गुह्य भाग न दिखे वैसी सुंदर आकृति युक्त प्रतिमा हो, मिथ्यादृष्टियों का उस पर अधिकार न हो, साथ ही सम्यग्दृष्टियों के द्वारा भावपूर्वक उनकी स्तवना की जाती हो, ऐसे अर्हत् चैत्यों को मैं यहाँ रहते हुए भावपूर्वक वंदना करता हूँ।
इसके अतिरिक्त मौन एकादशी स्तुति सटीक, दादा गुरुदेव की उपकार स्मृति स्वरूप स्तोत्र, गुरु भगवंतों की भक्ति प्रकटीकरण अष्टक आदि कृतज्ञता भावों को प्रकाशित करते हैं ।
तात्कालिक सामन्तवादी युग में भी साधनाशील व्यक्तित्व के कारण ही वे राजा महाराजाओं तक को प्रभावित करने में सफल रहे । जैसलमेर के रावल मूलराज तो आपसे इतने प्रभावित थे और इतनी निकटता रखते थे, कि जिसके फलस्वरूप उनके लिये आपने विज्ञानचंद्रिका नामक स्वतन्त्र ग्रंथ बनाया था ।
संयम की साधना व जिनशासन प्रभावना आपकी अन्तश्चेतना के प्रतीक थे, तो अतीत के प्रति भी आप जागरूक थे। उज्ज्वल अतीत को आपने खरतरगच्छ पट्टावली के रूप में लिपिबद्ध कर इतिहास विषयक ज्ञान का भी परिचय दिया है। जिसमें अनेक समुचित कारणों का उल्लेख कर पूर्वाचार्यों के प्रति अपनी भावांजलि प्रकट की है।
गेय साहित्य
जिनागमों के तथ्यों को जनसामान्य में प्रचार करने के लिए पूर्व समय में प्रबंध, चोपाई, सज्झाय, विनती, पद, चोढालिया, विवाहलो आदि प्रचलित थे। महोपाध्यायजी ने जीवन काल में थावच्चापुत्र अणगार चोढालिया, अइमत्ता सज्झाय, सुदर्शन सेठ सज्झाय, जिनाज्ञा सज्झाय, भगवती सूत्र सज्झाय, गुरुवंदन के बत्तीस दोष की सज्झाय, स्थूलिभद्र स्थापना गीत, हितशिक्षा बत्तीसी सहित अनेक उपदेशक गीतों का निर्माण किया है। जिसमें महापुरुषों के जीवन की अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन हैं।
शताधिक परमात्म भक्ति स्तवन, चैत्यवंदन भी उपलब्ध हैं जिनसे आपकी विहार यात्रा, अनेक नगरों में हुई प्रतिष्ठा व तीर्थ यात्राओं का वर्णन आदि अनेक सूचनाओं का ज्ञान होता है।
महोपाध्यायजी ने बीकानेर में ज्ञानभंडार की स्थापना भी की थी जो संप्रति वृहद् ज्ञान भंडार बीकानेर में सरंक्षित है।
पाठकप्रवर का विचरण क्षेत्र राजस्थान, गुजरात, बंगाल, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि में प्रमुखता से हुआ ।
वर्तमान में खरतरगच्छीय साधु-साध्वीजी भगवंत जिस वासक्षेप चूर्ण का उपयोग करते हैं, उसे संपूर्ण विधि-विधान के साथ पाठकप्रवर ने ही अभिमंत्रित किया था। वही वासचूर्ण गुरुपरंपरानुसार आज