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सत्रहवीं गाथा में जिनराज और मुनिराज की 1747 तक का मानी जा सकती है। उसी काल में इस सेवा में आरंभ को भगवती सूत्र के अनुसार अल्पकर्म कृति की भी रचना हुई है। और बहू निर्जरा वाला बताया है। इस तरह के सूत्र
कर्ता परिचय वचनों का जो लोप अथवा संदेह करते है
यशःपूज तृतीय उन्हें भारीका जानना
दादागुरुदेव आचार्य श्री चाहिए।
जिनकुशलसूरि के शिष्य उन्नीसवीं गाथा में
गौतमरास के रचयिता जिन पूजा में अंतराय देने से
विनयप्रभ उपाध्याय से एक 10 प्रकार के अंतराय का बंध
पृथक साधु परम्परा चली जो होना बताया है।
एक स्वतंत्र शाखा न होकर बीसवीं गाथा में
मुख्य परम्परा की 'न्हाया कयवली कम्मिया'
आज्ञानुवर्ती रही। विनयप्रभ इत्यादि अंग-उपांग के पाठों
उपाध्याय के शिष्य के अर्थ का विचार कर
विजयतिलक उपाध्याय हुए। परमात्मा की पूजा के 17
उपाध्याय क्षेमकीर्ति इन्हीं के प्रकार का स्वरूप जानने का
शिष्य थे। बताया गया हैं।
प्रचलित मान्यतानुसार बाइसवी गाथा में
उपाध्याय क्षेमकीर्ति ने एक परमात्मा पूजा हित-सुख
साथ 500 धावड़ी (बाराती) और मोक्ष का कारण है।
लोगों को दीक्षा दी थी तेइसवीं गाथा में
इसीलिये यह परम्परा उदाहरण देकर समझाया है
क्षेमकीर्ति या क्षेमधाड़ शाखा जिस प्रकार नारी के चित्र में
के नाम से जानी जाती है। रहे रूप को देखने पर काम
यही बात कल्पसूत्र राग उत्पन्न होता है उसी
की कल्पद्रुमकलिका टीका तरह वैराग्य की कल्पना करने पर मन में की प्रशस्ति में लिखी गई हैविराग-भाव उत्पन्न होता है।
श्रीमज्जिनादिकुशलः कुशलस्य कर्ता चोबीसवीं गाथा में श्री शय्यंभवसूरि, आर्द्रकुमार आदि जिन प्रतिमा के दर्शन से प्रबुद्ध
गच्छे बृहत्खरतरे गुरुराड् बभूव । हुए और भवसागर को पार किया।
शिष्यश्च तस्य सकलागमतत्त्वदर्शी पच्चीसवीं गाथा में जो सम्यक्त्व को धारण
श्रीपाठकः कविवरो विनयप्रभोऽभूत् ||1|| करता है वह उत्तम करणी से अपने जीवन को पवित्र विजयतिलकनामा पाठकस्तस्य शिष्यो बनाता है वह कुत्सित-दुष्ट कर्म नहीं करता है।
भुवनविदितकीर्तिर्वाचकः क्षेमकीर्तिः । छब्बीसवीं गाथा में मुनि और श्रावक दोनों प्रचूरविहितशिष्यः प्रसृता तस्य शाखा पंचम आवश्यक में सर्वलोक में स्थित जैन चैत्य और सकलजगति जाता क्षेमधारी ततोऽसौ ||2|| प्रतिमा की आराधना करते हैं।
अपने उदय से लेकर बीसवीं शताब्दी के तीसरे सत्ताइसवीं गाथा में जिन धर्म का सार संक्षेप दशक तक यह परम्परा अविच्छिन्न रूप से पहले साधुओं बताते हुए लक्ष्मीवल्लभ गणि फरमाते हैं कि जिन के रूप में और बाद में वही यतियों के रूप में चलती रही। वचन में शंका का त्याग करते हुए समकितधारी इस शाखा में गीतार्थ विद्वानों की लम्बी और विशाल
परम्परा रही है। इसमें अनेक दिग्गज विद्वान् एवं कृति में रचना संवत् का उल्लेख नहीं है। साहित्यकार हए हैं जिनमें से कुछ के नामोल्लेख इस फिर भी रचनाकार का साहित्योपासना काल प्रकार हैं- उपाध्याय तपोरत्न, महोपाध्याय जयसोम, उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर वि.सं. 1721 से वि.सं. महोपाध्याय गुणविनय, मतिकीर्ति, उपाध्याय श्रीसार,
15| जहाज मन्दिर • फरवरी - 2017
बनें।