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5. सार्धपौणमीय गच्छ इस गच्छ की स्थापना चन्द्रप्रभसूरि ने की ये महानिशीथ सूत्र की गणना
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शास्त्र ग्रन्थों में नहीं करते थे।
6. अंचल गच्छ
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इस गच्छ के संस्थापक उपाध्याय विजयसिंह थे। बाद में ये आर्यरक्षित सूरि के नाम
से विख्यात हुए।
7. आगमिक गच्छ इस गच्छ के संस्थापक शीलगुण और देवभद्र थे। ये क्षेत्रपाल की पूजा करने के
विरूद्ध थे।
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इन गच्छों में आज खरतर, तपा और आंचलिक गच्छ ही वर्तमान हैं। इनकी साधु-समाचारी में भेद हैं पर यह निर्जीव-सा है।
सोलहवीं शताब्दी में श्वेताम्बर परंपरा में क्रांतिकारी लौकाशाह पैदा हुए। उस समय श्वेताम्बर धर्मगच्छों के संचालन का दायित्व यति वर्ग के हाथ में था । यति चैत्यों में निवास करते थे। उनके सामने साधुत्व का भाव कम और लोकरंजन का भाव प्रमुख था वे धन-संपदा का निरंकुश भोग और सुविधाओं का उपभोग करने लगे। इन सबके विरोध में लौकाशाह ने क्रांति कर दी। उनकी लेखनी सुन्दर होने के कारण यतियों ने उन्हें आगम लिखने का कार्य सौंपा। उन्होंने आगम-प्रतिपादित सिद्धान्त और साध्वाचार के बीच गंभीर भेद पाया। एक दिन उन्होंने निर्भिकतापूर्वक मूर्ति पूजा के विरोध में क्रांति का उद्घोष कर दिया। कोट्याधीश लक्खमसी भाई ने लौकाशाह के विचारों को गहराई से समझा और वे उनके मत का प्रबल समर्थन करने लगे। वी.नि. 2001 (वि.सं. 1531) में कई व्यक्तियों ने लौकाशाह की श्रद्धा के अनुरूप श्रमण दीक्षा ली और उन्होंने चैत्यों में रहना छोड़ा यह नया गच्छ लौकागच्छ के नाम से जाना गया। लौकाशाह का वी.नि. 2016 (वि.सं. 1541 ) में स्वर्गवास हो गया एक शती पूर्ण होने पूर्व ही सैंकड़ों व्यक्तियों ने लौकागच्छ में निग्रन्थ-दीक्षा ली। तदन्तर परस्पर सौहार्द्र और एक सूत्रता की कमी के कारण संगठन कमजोर हो गया। इस समय ऋषि लवजी, धर्मसिंह जी एवं धर्मदास जी ने लौंकाशाह की धर्म क्रांति को सहारा दिया और स्थानकवासी सम्प्रदाय की नींव डाली। आचार्य धर्मदास जी के 99 शिष्य थे जो उनके स्वर्गवास के बाद बाईस भागों में विभक्त हो गया। आज यह सम्प्रदाय स्थानकवासी कहलाता है।
विक्रम की इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में सादड़ी में स्थानकवासी मुनियों का वृहद् श्रमण सम्मेलन हुआ। उसमें आचार्य आत्माराम जी को प्रमुख पद पर चुन कर अधिकांश स्थानकवासी संप्रदायों को एकीकृत किया गया जिसका नाम श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ हुआ स्थानकवासी परंपरा की दूसरी शाखा 'साधुमार्गी' के नाम से प्रसिद्ध है । वह श्रमण संघ के साथ नहीं है।
गाँजल संप्रदाय, लींबड़ी संप्रदाय और आठकोटि संप्रदाय भी स्थानकवासी परंपरा की शाखाए हैं और ये (गुजरात सौराष्ट और कच्छ) में हैं।
स्थानकवासी संप्रदाय के आचार्य रूधनाथ जी के शिष्य संत भीखणजी (आचार्य भिक्षु) ने वि.सं. 1817 में तेरापंथ का प्रवर्तन किया। आचार्य भिक्षु ने आचार - शुद्धि और संगठन पर बल दिया। थोड़े ही समय में एक आचार्य, एक आचार और एक विचार के लिए तेरापंथ प्रसिद्ध हो गया।
भारत में जैनधर्म का विस्तार
तीसरी शताब्दी ईस्वी के अंत तक जैन धर्म की जड़ें प्रायः सम्पूर्ण भारत में जम चुकी थी अपने मूल केन्द्र मगध से प्रारम्भ करके वह दक्षिण पूर्व में कलिंग, पश्चिम में मथुरा, मालवा और सौराष्ट्र तथा दक्षिण में दक्षिणापक्ष, कर्नाटक और तमिल प्रदेशों तक शनैः-शनैः विस्तार पा चुका था। स्वयं मगध के ऊपर वह अपना प्रभाव खो चुका था, किन्तु वह पश्चिमी और दक्षिण भागों में पर्याप्त शक्तिशाली भी बन गया था।
गुप्त काल (320-520 ईस्वी) में पूर्वी बंगाल के राजशाही जिले के पहाड़पुर बिहार के राजगृह, पूर्वी उत्तर प्रदेश के वाराणसी और ककुम (गोरखपुर), पश्चिमी उत्तरप्रदेश के मथुरा, मध्य प्रदेश के उदयगिरी
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