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आचारांगसूत्र का वैशिष्टय
भगवान महावीर का सब से पहला उपदेश आचारांग में संकलित किया गया। आचारांग का पहला अध्ययन षट्काय जीवों की रक्षार्थ रचा गया। महावीर ने स्पष्टतः जोर देकर निर्देश दिया कि पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति और त्रसकाय जीव जीव हैं, साक्षात प्राणधारी जीव। इन्हें अपने ढंग से जीने देना धर्म है, इन्हें कष्ट पहुंचाना या नष्ट करना हिंसा है, पाप है। अहिंसा परम धर्म है और हिंसा महापाप। इन्ही षट्काय जीवों की संतति पुराना शब्दावली में संसार और आधुनिक शब्दावली में पर्यावरण से अभिहित है। अपने संयत और सम्यक आचरण से इस षटकायिक पर्यावरणीय संहति की रक्षा करना जैन धर्म का मूलाधार है।
श्रमण-परम्परा अहिंसक प्रयोगों के उदाहरणों से भरी पड़ी है। तीर्थंकरों ने पर्यावरण के संरक्षण से ही अपनी साधना प्रारम्भ की है। भ. ऋषभदेव ने कृषि एवं वन-सम्पदा को सुरक्षित रखने के लिये लोगों को सही ढंग से जीने की कला सिखायी । तीर्थंकर नेमिनाथ ने पशु-पक्षियों के प्राणों के समक्ष मनुष्य की विलासिता को निरर्थक प्रमाणित किया। स्वयं के त्याग द्वारा उन्होंने प्राणि-जगत् की स्वतन्त्रता की रक्षा की है। भ. पार्श्वनाथ ने धर्म और साधना के क्षेत्र में हिंसक अनुष्ठानों को अनुमति नहीं दी। अग्नि को व्यर्थ में जलाना और पानी को निरर्थक बहा देना भी हिंसा के सूक्ष्म द्वार हैं। भगवान् महावीर ने मानव जीवन को उन सूक्ष्म स्तरों तक अपनी साधना के द्वारा पहुंचाया है, जहां हिंसा और तृष्णा असम्भव हो जाय । षट्काय के जीवों की रक्षा में ही धर्म की घोषणा करके महावीर ने पृथ्वी, पानी, अग्नि, हवा, वनस्पति, कीड़े-मकोड़े, पशुपक्षी एवं मानव इन सबको सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया है। तभी वे कह सके-' मित्ति में सब भूयेसु, वेरं मझं ण केणइ - -मेरी सब प्राणियों से मित्रता है, मेरा किसी से बैर नहीं है। जैन जीवन शैली में पर्यावरण-सुरक्षा आरम्भ से ही ऐसी धुली-मिली रही है कि उसकी ओर अलग से विचार किए जाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। आज जब अवनति की ओर जाते हुए जीवन मूल्यों के कारण वह जीवन शैली ही प्रदूषित हो गई है और साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण भी अपने चरम की ओर बढ़ रहा है तब यह आवश्यक हो गया है कि हर पहलू को पर्यावरण के संदर्भ में देखा-परखा जाए। जैन आगमों में प्राचीन प्राकृत ग्रन्थ आचारांगसूत्र को पर्यावरण के दृष्टिकोण से यदि देखा जाय तो जान पड़ेगा कि उस विषय की सामग्री स्थान-स्थान पर वहां बिखरी पड़ी है।
आचारांग में पर्यावरण के प्रमुख घटकों को विभिन्न प्रसंगों में व्याख्यायित किया गया है। सर्वप्रथम पृथ्वीकाय जीवों के प्रति होने वाली हिंसा का वर्णन किया है। पृथ्वीकायिक जीव पारम्परिक परिभाषा में वे सूक्ष्म जीव हैं जिनसे पृथ्वी तत्व का निर्माण होता है तथा जो जीवन के लिए पृथ्वी तत्व पर आश्रित हैं। ठीक इसी प्रकार जलकाय, वायुकाय और अग्निकाय के जीवों की बात इस ग्रन्थ में की गयी है। इन जीवों की परिभाषा तथा जीवन प्रणाली आदि विषयों की चर्चा एक सर्वथा अलग और अपने आप में विस्तृत विषय है। हमारे दृष्टिकोण के लिए इतना ही यथेष्ट है कि दृश्य जगत् से परे जीवों का एक सूक्ष्म जगत् भी है जिसमें होने वाली क्रियाएं हमें प्रभावित करती हैं तथा हमसे वे प्रभावित होती हैं। ऐसी स्थिति में हमारी वह प्रत्येक क्रिया जो उस सूक्ष्म जगत् को हानि पहुंचाती है हिंसा है और त्याज्य है। पर्यावरण-संरक्षण का यह पहला सोपान है। भगवान महावीर ने आचारांगसूत्र में हिंसा की सूक्ष्म व्याख्या करते हुए उसे व्यक्तित्व को विकृत करने वाली कहा है। हिंसा की क्रियाएं पर्यावरण असंतुलन में प्रमुख कारण हैं। आचारांग में वस्तु जगत् और प्राणीजगत के पारस्परिक संबंधों को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। उसमें बताया गया है कि मन-वचन-काय की क्रियाएं आस-पास के वातावरण पर प्रभाव डालती हैं। अतः मन, वाणी और शरीर की हलचल के प्रति सचेत होना आवश्यक है। अनुचित कार्यों की पहिचान करना जरूरी है।
भगवान महावीर ने अनुचित कार्यों का मुख्य कारण अज्ञान और असावधानी (प्रमाद) को माना है। प्रमादी व्यक्ति और मूर्छित (अज्ञानी) व्यक्ति को सब ओर से भय रहता है। वह तनाव से घिरा हुआ होता है। इसलिए वह आस-पास के वातावरण पर शासन करने के लिए दूषित कार्य करता है। आचारांगसूत्र