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________________ थी और जिज्ञासु प्रत्यक्ष में उभयपक्ष के प्रतिपादित सिद्धांतों को सुनकर उनके बलाबल का, या सत्यासत्य का निर्णय करते थे। श्रावस्ती में केशी गौतम का सुप्रसिद्ध संवाद भी सर्वसाधारण जनता की उपस्थिति में ही हआ था। आज भी ऐसा हो तो मैं पसंद करूँगा। पसंद क्या, ऐसा होना ही चाहिए। संस्कृत प्राकृत भाषा के गंभीर अभ्यासी, साथ ही तटस्थ विद्वानों की निर्णायकता में आज के कुछ विवादास्पद विचारपक्षों की सार्वजनिक रूप से मुक्त चर्चा होना आवश्यक है। विचार चर्चा का यह पक्ष सत्य के अधिक निकट होगा, जनता के मन की भ्रांतियों के निराकरण में समर्थ होगा। क्या ऐसा कुछ हो सकेगा? हो सकेगा, तो बहुत ही सुंदर। शतशत साधुवाद। विगत दिल्ली यात्रा में भी मैंने सार्वजनिक चर्चा के लिए मुक्त आह्वान किया था, परन्तु खेद है कुछ हुआ नहीं। पर्युषण पर्व की मंगल चर्चा के प्रसंग पर यदि कहीं कुछ कटु एवं मर्यादाबाह्य लिखा गया हो, तो हार्दिक क्षमायाचना। संदर्भ 1. मूल शब्द अरक है, वही बोलचाल की भाषा में आरक या आरा बोला जाता है। 2. अनवस्थित कल्प का अर्थ अनियत कल्प है। कभी-कभार आवश्यकता होने पर पालन कर लिए जाते हैं, अधिकतर सामान्य स्थिति में पालन नहीं किए जाते। इनके लिए नित्य पालन जैसा कोई विधान नहीं है। आचार्य हरिभद्र पंचाशक की स्वोपज्ञ टीका में लिखते हैं "नो नैंव सततसेवनीयः, सदा विधेयोऽनित्यमर्यादास्वरूपोऽनियतव्यवस्थास्वभाव इति कृत्वा कदाचिदेव पालयन्तीति भावः।" 3. दोसाऽसति मज्झिमगा, अच्छंती जाव पुव्वकोडी वि। विचरति य वासासु वि, अकद्दमे पाणरहिए य ।।6435।। 4. सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स जिणस्स। मज्झिमगाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणां ।।6425।। -बृहत्कल्पभाष्य 'सप्रतिक्रमण:' उभयकालं षड्विधावश्यकरणयुक्तो धर्मः पूर्वस्य पश्चिमस्य च जिनस्य तीर्थे भवति.....मध्यमानां तु जिनानां तीर्थे 'कारणजाते' तथाविधेऽपराधे उत्पन्ने सति प्रतिक्रमणं भवति। -बृहकल्प भाष्य टीका 34 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212404
Book TitleParyushan Ek Aetihasik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf
Publication Year2009
Total Pages31
LanguageHindi
ClassificationArticle, 0_not_categorized, & Paryushan
File Size1 MB
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