SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ वसुधैव कुटुम्बकम् : बंद नहीं, सागर भारतीय संस्कृति में आज हजारों वर्षों के बाद भी कंस और कूणिक के प्रति जनसाधारण में घृणा और तिरस्कार का भाव विद्यमान है। मैं समझता हूँ, वह घृणा और तिरस्कार उनकी इच्छा दासता और स्वार्थवृत्ति के प्रति है । भारतीय संस्कृति का स्वर उद्घोषणा करता रहा है-- मनुष्य, तेरा आनन्द स्वयं के सुख भोग में नहीं है, स्वयं की इच्छापूर्ति में ही तेरी परितृप्ति नहीं है, बल्कि दूसरों के सुख में ही तेरा आनन्द छिपा हुआ है, दूसरों की परितृप्ति में ही तेरी परितृप्ति है। तेरे पास जो धन है, सम्पत्ति है, शक्ति है, बुद्धि है, वह किसलिए है ? तेरे पास जो ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धि है, उसका हेतु क्या है ? क्या स्वयं की सुख-सुविधा के लिए ही यह सब कुछ है ? अपने सुख-भोग के लिए तो एक पशु भी अपनी शक्ति का प्रयोग करता है, अपनी बुद्धि और बल से स्वयं की सुरक्षा करता है, इच्छापूर्ति करता है । फिर पशुता और मनुष्यता में अन्तर क्या है ? मनुष्य का वास्तविक आनन्द स्वयं के सुखोपभोग में नहीं, बल्कि दूसरों को अर्पण करने में है । मनुष्य के पास जो भी उपलब्धि है, वह अपने ध् के लिए, अपने पड़ोसी के लिए भी है। अपने ही समान दूसरे चैतन्य को समर्पण करने में जो सुख और आनन्द की अनुभूति होती है, वही सच्ची मनुष्यता है । बंगाल के सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री सतीशचन्द्र विद्याभूषण का नाम आपने सुना होगा ? एक व्यक्ति उनकी उदार एवं दयालु माता के दर्शन करने के लिए घर पर पहुँचा । जब विद्याभूषण की माता उस श्रद्धालु सज्जन के सामने आईं, तो वह आँखें फाड़-फाड़ कर उनके हाथों की ओर देखने लगा । माताजी ने उसकी इस उत्कट जिज्ञासा का कारण पूछा, तो वह बोला -- “ सतीशचन्द्र विद्याभूषण जैसे धनाढ्य विद्वान् की माँ के हाथों में हीरे और मोती के स्वर्ण- प्राभूषण की जगह पीतल के आभूषण देखकर मैं चकित हूँ कि यह क्या है, क्यों है ? आपके हाथों में ये शोभा नहीं देते।" माता ने गम्भीरता से कहा - "बेटा ! इन हाथों की शोभा तो दुष्काल के समय बंग पुत्रों को मुक्त भाव से अन्न-धन अर्पण करने में रही है। सेवा ही इन हाथों की सच्ची शोभा है। सोना और चाँदी हाथ की शोभा और सुन्दरता के कारण नहीं होते, बेटा ! मनुष्यता का यह कितना विराट् रूप है ! जो देवी अपने हाथ के आभूषण तक उतार कर भूखे-प्यासे बन्धुत्रों के पेट की ज्वाला को शान्त करती है, उनके सुख में ही अपना सुख देखती है, वह वस्तुतः मानव देहधारिणी सच्ची देवी है । भारतीय संस्कृति में यह समर्पण की भावना, करुणा और दान के रूप में विकसित हुई है। करुणा मानव- श्रात्मा का मूल स्वर है । किन्तु खेद है, उस करुणा का जो सर्वव्यापक और सर्वग्राही रूप पहले था, वह श्राज कुछ सीमित एवं संकीर्ण विधि - निषेधों में सिमट कर रह गया है । करुणा का अर्थ संकुचित हो गया है, काफी सीमित हो गया है । करुणा और दया का अर्थ इतना ही नहीं है कि कुछ कीड़ों-मकोड़ों की रक्षा करली जाए, कुछ बकरों और गायों को कसाई के हाथों से छुड़ा लिया जाए और अमुक तीर्थक्षेत्रों में मछली मारने के ठेके बन्द कर दिए जाएँ। अहिंसक समाज-रचना की भावना, जो आज हमारे समक्ष चल रही है, उसका मूल अभिप्राय समझना चाहिए। यह ठीक है कि पशु-दया भी करुणा का एक रूप है, पर करुणा और अहिंसा की यहीं पर इतिश्री नहीं हो जानी चाहिए, यह तो वसुधैव कुटुम्बकम् : बूंद नहीं, सागर ४२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.212395
Book TitleVasudaiv Kutumbakam Bund Nahi Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size636 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy