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जाता है। जब उसे पुत्र होता है, तब वह एक लोरी गाती है और उसमें आत्म-तत्त्व की शुद्धचेतना का पावन संदेश देती है--
"शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोसि,
संसार . माया • परिवजितोऽसि ।" यह एक लम्बी और विराट लोरी है, जो दार्शनिक-क्षेत्र में बड़ी ही चित्ताकर्षक है। इसमें कहा गया है-तू शुद्ध है, तू निरंजन है, अतः तू विकारों में, संसार की माया में मत फंस जाना। तू बुद्ध है, ज्ञानी है, अतः अज्ञान में न भटक जाना । तू यदि अज्ञान
और अविवेक में फंसा रहा, और तेरे मन का द्वार खुला न रहा, तो तू समाज में अंधकार फैला देगा। तू जगत् को प्रकाश देने पाया है और तेरा ज्ञान तुझे ही नहीं जगत् को भी प्रकाश की ओर ले जाएगा।
मदालसा का यह उद्बोधन, भारत का शाश्वत उद्बोधन है और वह हीनता, दीनता एवं मलिनता के अन्धगर्त में पड़ी हुई हर प्रात्मा के उत्थान के लिए, अपने स्वरूप-बोध के लिए है-तू निरंजन है, परम चेतनामय है, तू क्षुद्र संसारी जीव नहीं है। तू इस संसार के मायाजाल में फंसने हेतु नहीं आया है। तुझे अपने और संसार के मैल को साफ करना है। तू संसार की गलियों में कीड़ोंवत् रेंगने के लिए नहीं है। तू तो ऊर्ध्व-चेतन का परम पुरुष है, परम ब्रह्म है।
हाँ तो, भारत के इतिहास-पृष्ठ पर जीवन-जागरण का यह मंगल-गीत अाज भी अंकित है। और, मदालसा की उदात्त प्रेरणा हमारे सामने प्रकाशमान है।
अब भी यदि कोई यह कहे कि बहिनें सदा से मूर्ख रही हैं, और उन्होंने संसार को अन्धकार में ले जाने का ही प्रयत्न किया है, तो इसका उत्तर है कि वे महान् नारी ही है, जिन्होंने ऐसे-ऐसे पुत्र-रत्न दिये जो हर क्षेत्र में महान् बने। यदि कोई साधु बना, तो भी महान बना और यदि राजगद्दी पर बैठा, तो भी महान बना ! कोई सेनापति के रूप में वीरता के पथ पर अग्रसर हुआ, तो देश की रक्षा करके जनता का मन जीतता चला गया
और पृथ्वी पर जहाँ भी अपने पैर जमाये, वहीं एक मंगलमय साम्राज्य खड़ा कर दिया। महत्ता की जननी : नारी:
प्रश्न है, ये सब चीजें कहाँ से आईं ? माता की गोदी में से नहीं पाईं, तो क्या प्राकाश से बरस पड़ी? पुत्रों और पुनियों का निर्माण तो माता की गोद में ही होता है। यदि माता योग्य है, तो कोई कारण नहीं कि पुत्र योग्य न बने और माता अयोग्य है, तो कोई शक्ति नहीं, जो पुत्र को योग्य बना सके। वे संसार को जैसा चाहें, वैसा बना सकती है।
मेरी एक रचना के शिशु-गीत में एक बालक स्वयं कहता है कि-"मैं महान् हूँ ! मैंने बड़े-बड़े काम किये हैं। राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध वगैरह सब मुझ में से बने हैं।" इस प्रकार बहुत कुछ कहने के बाद अन्त में कहता है--"अाखिर में माता-पिता का खिलौना हूँ। वे जो बनाना चाहते हैं, वहीं मैं बन जाता हूँ। मैं देवता भी बन सकता हूँ और राक्षस भी बन सकता हूँ। मेरे अन्दर दोनों तरह की शक्तियाँ विद्यमान हैं। यदि माता-पिता देवता हैं, उनमें ठीक तरह सोचने की शक्ति है और मुझे देवता बनाना चाहते हैं, तो वे मुझे अवश्य ही देवता बना देंगे। यदि माता-पिता की गलतियों से, राक्षस बनने की शिक्षा मिलती रही और आसपास के वातावरण ने बुरे संस्कारों को जागृत कर दिया, तो मैं बड़ेसे-बड़ा राक्षस भी बन सकता हूँ।"
१. अन्त में माता-पिता के खेल का सामान हूँ मैं।
जो विचार वह बना लें, देव हूँ, शैतान हूँ मैं ||---'अमर माधुरी'
३६० Jain Education Intemational
पन्ना समिक्खए धम्म
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